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आमुख
साधना की स्थिति परम धन्य है जो इसके पथ पर चल पड़ता है वह स्वयं अपने को तथा दूसरों को भी धन्य बना सकता है । इस पथ पर चलने वाले को क्रमशः प्रकाश प्राप्त होने लगता है और धीरे-धीरे परम प्रकाश की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। हजारों सूर्यों के प्रकाश से भी अधिक तेजोवान आत्मा का प्रकाश होता है । जिसको वह प्रकाश प्राप्त हो जाता है उसके भीतर से अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो जाता है । वह सर्वज्ञ हो जाता है । 'सत्यं ज्ञानं अनन्तम् ब्रह्म' ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनन्त तत्त्व है । जिसे यह ब्रह्मसिद्धि प्राप्त हो जाती है उसकी चेतना अनन्तभेदिनी हो जाती है । उस अनन्त चेतना में सब कुछ समा जाता है, यह अनन्त चेतना सब कुछ देखने लगती है । कोई वस्तु इससे छिप नहीं सकती । ब्रह्मज्ञानी सर्वज्ञ हो जाता है । सब कुछ जानता है । जो ब्रह्मज्ञानी नहीं होता उसकी चेतना अनन्त न होकर सीमित ही रहती है । सीमा में सर्व कैसे समा सकता है । सीमित चेतनावाला मनुष्य सर्वज्ञ कैसे हो सकता है ।
साधना के पगों का निर्माण गुरु की सहायता से होता है । इस पथ पर वही गुरु आगे ले जा सकता है जो स्वयं यह यात्रा पूरी कर चुका रहता है । जो स्वयं पथ नहीं जानता वह शिष्य को कहां ले जा सकता है। इसी सत्य का उद्घाटन करते हुए कबीर ने कहा है-जाका गुरु है अन्धला चेला खरा