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श्रीमद् राजचंद्र की आत्मोपनिषद् निश्चय सर्वे ज्ञानीनो, आवी अत्र शमाय; धरी मौनता एम कही, सहज समाधि माय । ११८ ।। (निश्चय ज्ञानी सर्व का, यहाँ एक हो जाहि ।
कथके यों धरि मौनता, सहज समाधि मांहि ।। ११८ ।) प्रत्येक धर्म और दर्शन का अध्येता ‘आत्मसिद्धि' को उदार दृष्टि से एवं तुलना दृष्टि से समझेगा तो उसमें से उसे धर्म का मर्म अवश्य हाथ लगेगा। वास्तव में प्रस्तुत ग्रंथ धर्म और दर्शन के अभ्यासक्रम में स्थान पा सके ऐसा है। केवल उसे समझनेवाले और समझानेवाले का योग आवश्यक है।
श्री मुकुलभाई, एम्.ए., गुजरात विद्यापीठ में गुजराती के अध्यापक हैं। प्रस्तुत ग्रंथ तैयार करने की उनकी इच्छा को जाना तब मैने उसका स्वीकार कर लिया। उन्होंने सारा ग्रंथ विवेचन सहित मुझे पढ़कर सुनाया। वह सुनते ही मेरा प्रथम का आदर अनेक गुना बढ़ गया और परिणाम में कुछ लिखने की स्फुरणा भी हुई। मैं कोई अध्यात्मानुभवी नहीं हूँ। फिर भी मेरा शास्त्ररस तो है ही । केवल उस रस से
और यथा संभव तटस्थता से प्रेरित होकर मैंने कुछ संक्षिप्त फिर भी धारणा से विस्तृत लिखा है। अगर वह उपयोगी न भी बने तो भी यह श्रम मेरी दृष्टि से व्यर्थ नहीं है। यह अवसर देने के लिये मैं श्री मुकुलभाई का आभार मानता हूँ। जैन कुल नहीं फिर भी श्रीमद् राजचंद्र के साहित्य को पढ़कर समझकर तैयार होने और आत्मसिद्धि' का संस्करण तैयार करने के लिये उनका आभार मानना चाहिये। (श्रीमद् राजचन्द्र के 'आत्मसिद्धिशास्त्र': गुजरात विद्यापीठ का पुरोवचन)।
- सुखलाल। सरितकुंज, एलिसब्रीज, अहमदाबाद दि. २२ नवम्बर, १९५३
।। ॐ शान्तिः ॥