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लेखांक ३
सप्तभंगी
(एम्. ए. के परीक्षार्थी एक दक्षिण के विद्वान महाशय ने सप्तभंगी अर्थात् क्या? उसका दिग्दर्शन कराने की प्रार्थना करने पर पंडित सुखलालजी ने सार रूप में - मुद्दों के रूप में जो बताया था उसे यहाँ दिया गया है।)
१. भंग अर्थात् वस्तु का स्वरूप दर्शाने वाले विचार के प्रकार अर्थात् वाक्यरचना।
२. वे सात कहे जाते हैं, फिर भी मूल तो तीन ही हैं। शेष चार उन तीन मूल भंगों के पारस्परिक विविध संयोजन से होते हैं। _____३. किसी भी एक वस्तु के विषय में या एक ही धर्म के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न विचारकों की मान्यता में भेद दिखाई देता है। यह भेद विरोध रूप है या नहीं और यदि नहीं हो तो दिखाई दे रहे विरोध में अविरोध किस प्रकार...? अथवा यों कहो कि अमुक विवक्षित वस्तु के सम्बन्ध में जब धर्म विषयक दृष्टिभेद दीखते हों तब ऐसे भेदों का प्रमाणपूर्वक समन्वय करना, और वैसा करके सर्व सत्य दृष्टियों को उसके योग्य स्थान में रखकर न्याय देना उस भावना में सप्तभंगी का मूल है।
उदाहरणार्थ एक आत्मद्रव्य के विषय में उसके नित्यत्व के बारे में दृष्टिभेद है। कोई आत्मा को नित्य मानता है, तो कोई नित्य मानने से इन्कार करता है। कोई फिर ऐसा कहता है कि वह तत्त्व ही वचन अगोचर है । इस प्रकार आत्मतत्त्व के बारे में तीन पक्ष प्रसिद्ध हैं। इससे सोचना यह प्राप्त होता है कि क्या वह नित्य ही है -और अनित्यत्व उसमें प्रमाणबाधित है? अथवा क्या वह अनित्य ही है और नित्यत्व