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प्रज्ञा संचयन शंकाएँ लिखकर भेजते हैं यह उनतीस वर्ष की वय में उनका निर्भय एवं परिपक्व तर्कबल सूचित करता है।
महीपतराम रूपराम कहते और लिखते थे कि भारतवर्ष का अधःपतन जैनधर्म के कारण है। करीब बाईस वर्ष की आयु में श्रीमद् महीपतराम के पास पहुंचे। उन्होंने महीपतराम से प्रश्न पूछना आरंभ किया। सरलचित्त महीपतराम ने सीधे ही उत्तर दिये। इन उत्तरों के क्रम में श्रीमद् ने उनको इस तरह से पकड़ा कि सत्यप्रिय महीपतराम ने अंत में श्रीमद् की तर्कशक्ति के सामने झुकते हुए स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया कि इस विषय के बारे में मैंने कुछ सोचा नहीं है । यह तो क्रिश्चियन विद्यालयों में जैसा सुना है वैसा कहता हूँ, लेकिन आपकी बात सही है (८०८)। श्रीमद् तथा महीपतराम का यह वार्तालाप मजिझमनिकाय के बुद्ध तथा आश्वलायन के वार्तालाप की स्मृति दिलाता है।
सत्-असत् विवेक - विचार का बल तथा तुलना सामर्थ्य श्रीमद् में विशिष्ट थे। जैन परंपरा में हमेशा तो नहीं तो आख़िर कम से कम प्रत्येक मास की कुछ तिथि पर हरी सब्जी इत्यादि का त्याग करने को कहा गया है। जैनों की प्रकृति व्यापारी होने के कारण उन्होंने ऐसा मार्ग खोज निकाला कि जिससे धर्म का पालन भी हो
और खाने में भी किसी प्रकार की तकलीफ का सामना करना न पड़े। उसके अनुसार वे हरी साग सब्जियों को सुखा के भर लेते हैं और फिर निषिद्ध तिथियों के दिन वैसे ही स्वाद के साथ उन सूखी सब्जियों का उपयोग भोजन में करते भी हैं और हरी साग-सब्जी के त्याग का संतोष भी प्राप्त करते हैं। छोटी आयु में ही श्रीमद् के ध्यान में यह बात आ गई है।
'मोक्षमाळा' (५३) में इस प्रथा की यथार्थता-अयथार्थता के विषय में उन्होंने जो निर्णय दिया है, वह भविष्य में उनकी विकसित होनेवाली विवेकशक्ति का परिचायक है। आर्द्रा नक्षत्र का आरंभ हो तब से जैन परंपरा में आम खाना खास निषिद्ध माना जाता है। तो प्रश्न यह उठता है कि क्या आर्द्रा के बाद आम खाने ही नहीं चाहिए ? क्या आम विकृत हो ही जाते हैं ? इसका जो उत्तर उन्होंने दिया है वह कितना सही है! उन्होंने कहा है - आर्द्रा का निषेध चैत्र-बैसाख में उत्पन्न होनेवाले आमों के संबंध में है; आर्द्रा या उसके बाद आनेवाले आमों के संबंध में नहीं (७२१)। उनका यह विवेक कितना यथार्थ है उसकी कसौटी करने की इच्छावाले