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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना
___ २१ कोई एक समर्थ विद्वान थे जो भगवान महावीर की योग्यता का सामान्य रूप में स्वीकार तो करते थे, फिर भी उनकी असाधारणता के विषय में शंका लिये श्रीमद् से उन्होंने प्रश्न किया है कि महावीर की उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यवाली त्रिपदी एवं अस्ति नास्ति आदि नय कुछ सुसंगत नहीं है। एक ही वस्तु में उत्पत्ति है और नहीं है, नाश है और नहीं है, ध्रुवत्व है और नहीं है - यह सब कैसे हो सकता है ? और अगर परस्पर विरुद्ध ऐसे उत्पाद, नाश तथा ध्रुवत्व एवं नास्तित्व तथा अस्तित्व धर्म एक वस्तु में संभव न हो तो अठारह दोष उत्पन्न होते हैं। उन समर्थ विद्वान ने जो अठारह दोष उनके समक्ष रखे, ये ही उन विद्वान की समर्थता का सूचक है। यह या ऐसे अठारह दोषों का वर्णन इतने सारे शास्त्रों को उलटपलट कर लेने के बाद भी, मेरी स्मृति के अनुसार मैने भी उन विद्वान के साथ के श्रीमद् के वार्तालाप के प्रसंग में ही पढा है। इन दोषों को सुनने के बाद उसके निवारण हेतु तथा स्वयं उनके शब्दों में कहँ तो 'मध्य वय के क्षत्रिय कुमार' की त्रिपदी तथा नयभंगी को स्थापित करने के लिए श्रीमद् ने अपनी पूर्ण अल्पज्ञता को प्रकट कर के कांपते हुए स्वर में किन्तु हृदय की दृढ़ता के साथ केवल तर्कशक्ति के आधार पर उस चुनौती का स्वीकार करते हुए ऐसी खूबी के साथ ऐसी तर्कपटुता से उत्तर दिया है तथा सभी विरोधजन्य दोषों का परिहार किया है कि उसे पढ़ने पर गुणानुरागी हृदय में उनकी सहज तर्कपटुता के प्रति आदर उत्पन्न होता है। तर्करसिक जनोंको यह संपूर्ण संवाद उनके शब्दों में ही पढ़ना चाहिए।
आगे जा कर जगत्कर्ता की चर्चा के समय विनोदपूर्ण छटा से उस उम्र में जगत् कर्तृत्व का खंडन करते हुए तर्कपूर्ण ढंग से अपना पक्ष रखा है (मोक्षमाळा९७) वह भले ही किसी ग्रंथ के पठन का परिणाम हो, फिर भी उस खंडनमंडन में उनकी तर्कपटुता प्रत्यक्षरूप में - स्पष्ट झलकती है।
किसी व्यक्ति को पत्र लिखते हुए जैन परंपरा के केवलज्ञान से संबंधित रूढ़ अर्थ के विषय में जो विरोधदर्शी शंकाओं का शास्त्रपाठ के साथ उल्लेख किया है (७९८) वह सच्चे तर्कपटु को भी प्रभावित करे ऐसा है। जिसके विषय में केवल शंका उठाने से जैन समाजरूपी इन्द्र का आसन भी कंपित हो उठे और उसके परिणामस्वरूप शंका उठानेवाले के सामने वज्रनिर्घोष की ध्वनियाँ सुनाई देती हैं, उसके विष में श्रीमद्जी जैसे आगमों के अनन्य भक्त जिज्ञासुओं को निर्भयतापूर्वक