________________
२०
प्रज्ञा संचयन
कितनी सक्षम थी । प्रश्नोत्तर की शैली में वस्तु की चर्चा करने की उनकी कल्पनाशक्ति तो छोटी आयु से ही थी जिसका परिचय हमें पहले ही हो गया है - (मोक्षमाळा - १०२ आदि) ।
-
-
वर्ष की आयु में श्रीमद्जी कभी कभी गहन मनन की मस्ती में अपने प्रिय आध्यात्मिक विकासक्रम - गुणस्थान के विचारभुवन में प्रवेश करते हैं और फिर उस चिंतनविषय को वाणी में व्यक्त करते हुए एक मनोहर स्वलक्षी नाट्यात्मक नेपथ्य की छाया से युक्त कल्पनात्मक संवाद की रचना करते हैं (६१) और अत्यंत सरलतापूर्वक, रोचक ढंग से गुणस्थान की वस्तु विश्लेषणपूर्वक बताते हैं - उसी प्रकार आगे जा कर वही वस्तु आकर्षक ढंग से भावना के द्वारा 'अपूर्व अवसर' पद में दर्शाते हैं । जैन हो या जैनेतर - गुणस्थान को समझने की जिज्ञासावाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह संवाद जरा भी अरुचिकर न बन कर बोधप्रदाता सिद्ध हो ऐसा है ।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के नाम तथा उसका प्रसिद्ध अर्थ सर्वविदित है, परंतु श्रीमद्जी अपनी आध्यात्मिक प्रकृति के अनुसार कल्पनाशक्ति से चारों पुरुषार्थ का अर्थ आध्यात्मिक भाव में ही प्रस्तुत करते हैं। इससे भी अधिक सुंदर और परिपक्व कल्पनाशक्ति युवान वय में परंतु उनके जीवनकाल के हिसाब से तीस वर्ष की वृद्धावस्था में उनके द्वारा सरलता से समझ में आ सकती है। जनसमाज में प्रसिद्ध दिग्भ्रम के उदाहरण के साथ उलझे हुए और सुलझे हुए सूत के धागों के उदाहरण को जोड़ कर ज्ञान और अज्ञान के बीच का वास्तविक भेद जो उन्होंने प्रकट किया है वह अंत तक दृष्टांत को योग्य रूप में प्रयुक्त करते हुए उनकी अर्थ-विस्तार की एवं वक्तव्य - स्थापन की भव्य कल्पनाशक्ति को सूचित करता है।
श्रीमद्जी में तर्कपटुता कितनी सूक्ष्म तथा निर्दोष थी यह उनके लेखों में अनेक स्थान में चमत्कारिक रूप से देखने को मिलता है। यहाँ कुछ उदाहरणों का उल्लेख करता हूँ :
`सत्रहवें वर्ष के प्रारंभ में और जिनकी मूछों के बाल भी अभी निकले नहीं थे, जिन्होंने किसी विद्वान गुरु के चरणों के पास बैठकर कोई विशेष विद्यापरिशीलन भी नहीं किया था वें कुमार राजचंद्र 'मोक्षमाळा' में एक प्रसंग प्रस्तुत करते हैं । प्रसंग इस प्रकार है: