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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना
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से शौर्य और भाँग के सेवन से जिस प्रकार नशा चढ़ता है उस प्रकार सद्भक्ति से श्रेणी विकसित होती है । जिस प्रकार दर्पण के द्वारा स्वमुख का भान होता है उस प्रकार शुद्ध परमात्मा के गुणचिंतन के समय आत्मस्वरूप का भान प्रगट होता है । कैसा दृष्टांत सौष्ठव ! (मोक्षमाळा - १३) । उसी संदर्भ मे वे आगे कहते हैं - जिस प्रकार मुरली के नाद से सोया हुआ साँप जाग जाता है उसी प्रकार सद्गुणसमृद्धि के श्रवण से आत्मा मोहनिद्रा से जाग्रत हो जाती है (मोक्षमाळा - १४) ।
'मोक्षमाळा' में श्रीमद्जी ने बिना अर्थ समझे किये गये शब्दपाठ की निरर्थकता बताते हुए कच्छी बनिये लोगों की एक उपहासपूर्ण कथा प्रस्तुत की है, वह कुछ अंशों में पारिभाषिक होने के कारण मैं यहाँ प्रस्तुत नहीं करता हूँ, परंतु जो जैन हैं वे उस कथा को आसानी से समझ सकते हैं । अन्य लोग भी जैन लोगों के पास से आसानी से समझ सकेंगे । वह कथा जितनी विनोदपूर्ण तथा कुछ अंशों में अशिक्षित - से वैश्य समाज की प्रकृति के अनुरूप है, उतनी है बोधपूर्ण भी है।
जैन संप्रदाय के नव तत्त्वों की श्रीमद् सुंदर रूप से व्याख्या करते हुए एक प्रश्न हमारे समक्ष रखते हैं कि जीव तत्त्व के बाद अजीव तत्त्व आता है अजीव तत्त्व जीव तत्त्व का विरोधी तत्त्व है; इन दो विरोधी तत्त्वों का सामीप्य कैसे उचित माना जा सकता है ?
अपनी कल्पनाशक्ति से एक वर्तुल की कल्पना करते हुए इस प्रश्न का उत्तर भी वे आकर्षक ढंग से देते हैं। वे कहते हैं - देखिए, प्रथम तत्त्व जीव तत्त्व तथा नववाँ मोक्ष तत्त्व - ये दोनों कैसे पास पास हैं ! जब कि दूसरा तत्त्व - अजीव तत्त्व जीव तत्त्व के निकट - बाजु में दिखाई देता है लेकिन यह हमारे अज्ञान के कारण है, ऐसा समझ लेना चाहिए। ज्ञानदृष्टि से देखें तो जीव और मोक्ष ही एक दूसरे के पास पास हैं । उनका इस आयु में ऐसा कल्पनाचातुर्य - सचमुच कितना असाधारण है ! उसी प्रकार तेईस वर्ष की आयु में अपनी समझ के अनुसार वेदांत संमत ब्रह्माद्वैत तथा मायावाद की अयुक्तता - भिन्नता बताने के लिए एक चतुष्कोण आकृति (६३) बनाकर उसमें जगत, ईश्वर, चेतन, माया आदि के विभाग बना कर कितनी सुंदर कल्पनाशक्ति का परिचय दिया है! मायावाद का उनका निरसन कितना मूलगामी था, यह प्रश्न यहाँ महत्त्वपूर्ण नहीं है। यहाँ प्रश्न यह है कि वे जिस वस्तु को उचित या अनुचित समझते थे उसे उस प्रकार बताने हेतु, उनकी कल्पनाशक्ति