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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन थी,' (५) विजयपुरी के प्रासादतल से नगरी की दक्षिण दीवाल समुद्र के जल में घुलती हुई दिखाई देती थी, तथा महेन्द्रकुमार अयोध्या से ग्रीष्मकाल में चलकर एक माह तीन दिन में विजयपुरी पहुँच गया था (१५७.११)।
विजयपुरी के उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है कि यद्यपि उद्योतन ने स्वयं दक्षिण भारत की यात्रा कर उसे नहीं देखा होगा, किन्तु व्यापारियों के मुख से उसका वर्णन अवश्य सुना होगा। व्यापारिक-मण्डी होने के कारण विजयपुरी दक्षिण से उत्तर एवं पश्चिम भारत में अवश्य प्रसिद्ध रही होगी। डा० ए० एन० उपाध्ये ने स्वयं दक्षिण भारत में जाकर इस विजयपुरी की स्थिति को देखा है। उनके अनुसार रत्नगिरि जिला के विजयदुर्ग नामक नगर से विजयपुरी की पहचान की जा सकती है। डा० आर०जी० भण्डारकर ने विजयदुर्ग की स्थिति एवं मार्ग आदि के सम्बन्ध में जो विवरण दिया है, वह कुव० के वर्णन से मिलता-जुलता है।"
विजयपुरी (१३५.४-७)-डा० अग्रवाल ने इसका सम्बन्ध नागार्जुनकुण्डा के इक्ष्वाकु अभिलेखों में उल्लिखित विजया महापुरी से जोड़ा है, किन्तु इसका कोई आधार नहीं दिया। श्री शाह ने नारियल एवं पनास वृक्षों की बहुतायत तथा मठ के उल्लेख के आधार पर विजयपुरी को केरल में स्थित माना है। किन्तु इस तर्क में भी वजन नहीं है । अतः डा० उपाध्ये द्वारा प्रस्तावित विजयदुर्ग से ही विजयपुरी की पहचान करना ठीक है।
विन्ध्यपुर (१३५.५)-विन्ध्यपुर से कांचीपुर तक सार्थ चला करते थे। इसके अतिरिक्त उसकी स्थिति आदि के सम्बन्ध में कुव० में कोई जानकारी नहीं दी गई है।
विन्ध्यवास (९९.१४)-विन्ध्यपर्वत के कुहर में विन्ध्यवास नाम का सन्निवेश था, वहाँ महेन्द्र राजा था, जिस पर कोशल के राजा ने चढ़ाई कर दी थी। उसके बाद महेन्द्र की रानी तारा ने भरुकच्छ जाकर अपनी रक्षा की थी (९९.१४, १८)। इससे ज्ञात होता है कि विन्ध्यवास, कोशल और भरुकच्छ के आस-पास रहा होगा।
१. वारयापुरी-जइसिय समुद्द-वलय-परिगय, १४९.२३. २. आरुढेहिं दिह्र तेहिं विजयपुरवरीए दक्षिण-पायार-सेणी-बंधं धयमाणं महारयणा
यरं, १७३.३१. ३. रत्नगिरि डिस्ट्रिक गजेटियर, पृ० ३७९. ४. भ०-अ० हि० डे०, पृ० ७३ आदि । ५. उ०-कुव० इ०, पृ० ७६. ६. अ०-कुव० क० नोट्स, पृ० १२४. ७. शाह यू० पी०, ए० भ० ओ० रि० इ० भाग XLIX, पृ० २४७-५२. ८. एस विझपुराओ आगओ कंचीउरि वच्चीहिइ-१३५.५,