SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन कुवलयचन्द्र ने नर्मदा पार की। वह संन्यासिनी ऐणिका और उसके सेवक राजकीर से मिला । राजकीर ने ऐणिका की कहानी कुमार को सुनायी। ऐणिका राजा पद्म और रानी श्रीकान्ता की पुत्री थी। बचपन में पूर्व-जन्म के पति द्वारा उसे जंगल में छोड़ दिया गया था, जहाँ वह मृगों के साथ बड़ी हुई । राजकीर ने उसे पढ़ना-लिखना सिखाया एवं सम्यक्त्व धारण कराया । कुवलयचन्द्र ने भी अपनी यात्रा का उद्देश्य उन्हें बताया। ऐणिका ने राजकीर को अयोध्या भेजकर कुमार की कुशलता के समाचार उनके माता-पिता के पास भिजवाये। तदनन्तर कुवलयचन्द्र उनसे विदा लेकर आगे चल पड़ा। कुवलयचन्द्र मध्यपर्वत में पहुँचा तथा कांचीपुरी को जानेवाले सार्थ के साथ हो लिया। रास्ते में भिल्लों ने सार्थ पर आक्रमण कर दिया। कुमार ने साहस एवं वीरता-पूर्वक उनका मुकावला किया। भिल्लपति ने कुमार से समझौता कर लिया और जब पता चला कि दोनों श्रावक हैं तो उनमें मित्रता हो गयी। कुवलयचन्द्र को भिल्लपति अपनी पल्ली में ले गया, जहाँ कुमार सुखपूर्वक रहा। वास्तव में भिल्लपति दृढ़वर्मन् के चचेरे भाई रत्नमुकुट का पुत्र दर्पपरिघ था, जो राज्य से निष्कासित होने के कारण भील बन गया था। कुवलयचन्द्र ने अपने चचेरे भाई को जैनधर्म का उपदेश दिया और दक्षिण की ओर चल पडा । उसके जाते ही दर्पपरिघ ने वैराग्य ले लिया। कुवलयचन्द्र विजयपुरी पहँचा। वहाँ उसने सुना कि कुवलयमाला ने राज्यदरबार में एक अधूरा श्लोक लिखकर टांग रखा है, जो उसे पूरा कर देगा उसी के साथ उसकी शादी होगी। कुमार राज्य-दरबार की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसने १८ देशों के बनियों के समूह को देखा। तभी एक पागल हाथी उधर आ निकला । राजमहल में हलचल मच गयी। कुवलयचन्द्र ने हाथी को वश में कर लिया। उस पर चढ़कर श्लोक (गाथा) की पूर्ति कर दी। कुवलयमाला ने माल्यार्पण करके उसे अपना वर स्वीकार कर लिया। इधर महेन्द्रकुमार भी कुवलयचन्द्र को खोजते हुए विजयपुरी पहुँच चुका था। उसने राजा महासेन को कुमार का पूरा परिचय दिया। कुमार से अयोध्या के समाचार कहे। राजा महासेन ने विवाह की लग्न की प्रतीक्षा में दोनों कुमारों को ससम्मान महल में ठहराया। विवाह के लग्न की प्रतीक्षा में कुवलयचन्द्र एवं कुवलयमाला विभिन्न उपहारों द्वारा अपने उद्गारों का आदान-प्रदान करते रहे। अन्त में उत्साहपूर्वक विवाह-कार्य सम्पन्न हुआ। आमोद-प्रमोद करते हुए अवसर देखकर कुवलयचन्द्र ने कुवलयमाला को पूर्व-जन्मों का वृतान्त कह सुनाया और सम्यक्त्व पालन करने का आग्रह किया । कुवलयमाला ने उसका पालन किया। अयोध्या से पिता का पत्र पाकर कुवलयचन्द्र अपनी पत्नी एवं महेन्द्रकुमार के साथ सास-ससुर से विदा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़ा। सह्यपर्वत में उनकी
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy