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ग्रन्थ की कथावस्तु एवं उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
२७ के पास जयश्री नगरी में पहुँचा। वहाँ मालर वृक्ष को जड़ से धन प्राप्त कर वह नगर में एक सेठ के पास पहुंचा। मित्रता हो जाने पर सेठ ने उससे अपनी कन्या का विवाह कर देने का वचन दिया एवं यवनद्वीप जाने के लिए तैयारी कर दी । सागरदत्त ने यवनद्वीप में जाकर सात करोड़ मुद्राएँ अजित की। किन्तु लौटते समय जहाज भग्न हो जाने से सब सम्पत्ति नष्ट हो गयी। फलक के सहारे वह चन्द्रद्वीप में जा लगा। वहाँ उसने भग्न प्रेम-व्यापार से पीड़ित एक कन्या को अग्नि में जल कर मरने के लिए तत्पर देखा। उसकी कथा सुनकर सागरदत्त भी अग्निदाह के लिए तैयार हो गया। किन्तु प्रवेश करते ही अग्नि की ज्वाला कमलों में परिवर्तिन हो गयी। पद्मकेशर देव (मोहदत्त) ने सागरदत्त के इस कार्य की निन्दा की। उसे उसका उत्तरदायित्व स्मरण कराया तथा २१ करोड़ मुद्राएँ प्रदान की। तदनन्तर जयश्री नगरी में ले जाकर दोनों कन्याओं से विवाह कराया और सबको वह चम्पा पहुँचा दिया ।
कुछ समय बाद सागरदत्त ने धनदत्त मुनि से दीक्षा ले ली। सो हे कुमार कुवलयचन्द्र ! मैं वही सागरदत्त हूँ। निरन्तर तपस्या करते हुए मैंने जो ज्ञान प्राप्त किया उससे जाना कि मेरे चारों साथी कहाँ हैं। पद्मचन्द्र (चंडसोम) विन्ध्याटवी में सिंह के रूप में पैदा हुआ है, पद्मसर (मानभट) कुवलयचन्द्र के रूप में अयोध्या में तथा पद्मवर (मायादित्य) दक्षिण में विजयानगरी के राजा महासेन की पुत्री कुवलमाला के रूप में पैदा हुए हैं। पद्मकेशर (मोहदत्त) ने मुझे सम्बोधित किया ही था। वहाँ से मैं यहाँ सिंह (चंडसोम) के पास चला आया और पद्मकेशर अश्व के रूप में तुम्हें यहाँ ले आया है । अतः आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हम सबको परस्पर सम्यक्त्व पालन करने में सहयोग करना चाहिए।
यह सब सुनकर कुवलयचन्द्र ने श्रावक के व्रत धारण किये एवं सम्यक्त्व का पालन करने का वचन दिया । मुनिराज ने उसे कुवलयमाला से विवाह करने को कहा और बतलाया कि पद्मकेशर (मोहदत्त) उनके यहाँ पुत्र के रूप में उत्पन्न होगा। यह सब सुनकर सिंह ने भी व्रत धारण किए और धार्मिक आचरण में रत हो गया, किन्तु आयु शेष न होने से वह वहीं मरणासन्न हो गया। कुमार कुवलयचन्द्र ने उसके कान में पंच नमस्कार मन्त्र सुनाया। शान्तिपूर्वक उसकी मृत्यु हो गयी । सिंह मरणोपरान्त वैडूर्य विमान में देव उत्पन्न हुआ।
तदनन्तर कुवलयचन्द्र दक्षिण की ओर विन्ध्याटवी में होता हुआ आगे बढ़ा । एक सरोवर के किनारे उसने एक यक्षप्रतिमा के दर्शन किये, जिसके मुकूट में मुक्ताशैल निर्मित जिन-प्रतिमा थी। वहाँ कुमार ने यक्षकन्या कनकप्रभा से भेंट की, जो यक्ष रत्नशेखर द्वारा वहाँ जिन-प्रतिमा की पूजा के लिए नियुक्त थी। कुमार जब वहाँ से चलने लगा तो कनकप्रभा ने कुमार को एक औषधिवलय उसकी रक्षार्थ भेंट की।