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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन प्रसिद्ध था। वैण्णवधर्म में भक्ति की प्रधानता थी, किन्तु शंकर के अद्वैतवाद और जगत्मिथ्यात्व के सिद्धान्त ने इसमें परिवर्तन लाना प्रारम्भ कर दिया था। गोविन्द, नारायण (कृष्ण), लक्ष्मी इस धर्म के प्रमुख देवता थे। विष्णु और ब्रह्मा को स्थिति गौण हो चली थी।
भारतीय दर्शनों में बौद्धदर्शन की हीनयान शाखा का उद्द्योतन ने उल्लेख किया है । लोकायतदर्शन के प्रसंग में 'प्रकाश' तत्त्व का उल्लेख पंचभूत के प्रभाव का परिणाम है । जैनधर्म को अनेकान्तदर्शन कहा जाता था। सांख्यकारिका का पठन-पाठन सांख्यदर्शन के अन्तर्गत मठों में होता था। त्रिदण्डी, योगी एवं चरक इस दर्शन का प्रचार कर रहे थे। दूसरी ओर कुछ सांख्य-पालोचक भी थे। वैशेषिक-दर्शन के प्रसंग में लेखक ने 'अभाव' पदार्थ का उल्लेख नहीं किया । अतः कणाद-प्रणीत 'वैशेषिक-सूत्र' के पठन-पाठन का अधिक प्रचार था। न्यायदर्शन के १६ पदार्थों का वाचन किया जाता था। मीमांसा-दर्शन के अन्तर्गत कुमारिल की विचारधारा अधिक प्रभावशाली थी। वेदान्त और योग दर्शन का पृथक से ग्रन्थ में उल्लेख नहीं है। अतः शंकराचार्य उद्द्योतन के वाद प्रभावशाली हुए प्रतीत होते हैं। आचार्य अकलंक का भी उद्योतन ने उल्लेख नहीं किया, जो उनके समकालीन माने जाते हैं ।
अन्य धार्मिक विचारकों में पंडर-भिक्षुक, अज्ञानवादी, चित्र शिखंडि, नियतिवादी आदि भी अपनी-अपनी विचारधाराओं का प्रचार कर रहे थे। ये सव विचारक एक-साथ मिल-बैठकर भी तत्त्वचर्चा करते थे। इस युग में अन्य धार्मिक विश्वासों के साथ व्यन्तर-देवताओं की अर्चना भी प्रचलित थी। यद्यपि अनेक तान्त्रिक-साधनाओं का भी अस्तित्व था, किन्तु अहिंसक चिंतक होने के कारण उद्द्योतनसरि ने इनकी निरर्थकता प्रतिपादित की है। फिर भी कुछ विशिष्ट देवता विशेष कार्य के लिए उपकारी माने जाने लगे थे। कुष्ट-निवारण के लिए मूलस्थान-भट्टारक के उल्लेखों से तत्कालीन सूर्योपासना का स्वरूप स्पष्ट होता है । जैनधर्म के प्रमुख-सिद्धान्तों का दिग्दर्शन ग्रन्थकार ने अनेक प्रसंगों में प्रस्तुत किया है, जो उनका प्रतिपाद्य था।
___इस प्रकार कुवलयमालाकहा का प्रस्तुत अध्ययन एक ओर जहां उद्योतनसरि के अगाध पाण्डित्य और विशद ज्ञान का परिचायक है, वहाँ दूसरी ओर प्राचीन भारतीय समाज, धर्म और कलाओं का दिग्दर्शक भी। पूर्वमध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण में इस ग्रन्थ के प्रामाणिक तथ्य सुदृढ़ आधार सिद्ध होंगे। साहित्य वृत्तिपरिष्कार के द्वारा नैतिक मार्ग में प्रवृत्त करता है। कुवलयमालाकहा को धार्मिक एवं सदाचारपरक दृष्टि साहित्य के इस उद्देश्य को भी चरितार्थ करती है।