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उपसंहार भूषा द्वारा पात्रों के चरित्र का यथावत् अनुकरण नाट्यों द्वारा किया जाता था, जो सामाजिक को रसानुभूति कराने में सक्षम होते थे। गाँवों में नाट्यमंडली लोक मंचों पर शृंगारिक प्रदर्शन करती हुई घूमती थीं। इनमें स्त्रीपात्र भी अभिनय करते थे, जिन्हें ग्रामनटी कहा जाता था। इनके प्रदर्शन को आधुनिक भवाई नाट्य का जनक कहा जा सकता है। उद्योतन ने रास, डांडिया, चर्चरी, डोम्बलिक एवं सिग्गाडाइय आदि अन्य लोक-नाट्यों का भी उल्लेख किया है। इनमें संगीत और गीत भी सम्मिलित थे। वाद्यों के लिए सामान्य शब्द 'आतोद्य' प्रयुक्त होता था। 'तूर' मंगलवाद्य के रूप में प्रचलित था, जिसका प्रयोग वाद्यसमूह के लिए भी होने लगा था । २४ प्रकार के वाद्यों के अतिरिक्त उद्योतन ने 'तोडहिया' 'वज्जिर' और 'वव्वीसक' जैसे लोक-वाद्यों का भी उल्लेख किया है।
भित्तिचित्र एवं पटचित्र दोनों के प्रचुर उल्लेख कुवलयमालाकहा में हैं। पटचित्रों द्वारा संसार-दर्शन कराया गया है। पटचित्रों की लोकपरम्परा में उद्योतन का यह महत्त्वपूर्ण योगदान है। ग्रन्थ के कथात्मक पटचित्र ने 'पाव जी की पड़ आदि को आधार प्रदान किया है। उद्द्योतन द्वारा प्रयुक्त चित्रकला के परिभाषिक शब्दों में भाव, ठाणय, माण, दठ्ठ, वत्तिणी, वण्ण विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। भारतीय स्थापत्य के क्षेत्र में उद्योतन ने प्रतोली को रक्षामुख तथा अश्व-क्रीड़ा के केन्द्र को बाह्याली कहा है । बाह्याली के वर्णन से ज्ञात होता है वह आधुनिक 'पोलो' खेल के मैदान जैसा था । बाह्यास्थान-मण्डप एवं अभ्यन्तरास्थान-मण्डप के सभी स्थापत्यों का वर्णन कुव० में हुआ है, जिनमें धवलगृह, वासभवन, दोघिका, क्रीडाशैल, कपोतपाली आदि विशिष्ट हैं । यन्त्र-जलघर एवं यन्त्रशकुन के वर्णन द्वारा उदद्योतन ने प्राचीन जल-क्रीडा विनोद को अधिक स्पष्ट किया है। ग्रन्थ में उल्लिखित तीर्थंकर को सिर पर धारण किये हुए यक्षप्रतिमा भारतीय मूर्तिशिल्प का विशिष्ट उदाहरण है। आठ देवकन्याओं एवं शालभंजिकाओं की मूर्तियाँ परम्परागत शैली में वर्णित है । मुक्ताशैल द्वारा निर्मित मूर्तियों का उल्लेख उस समय मूर्तिकला में संगमरमर के प्रयोग को सूचित करता है । प्रतिमाओं के विभिन्न आसनों में गोदोहन-आसन चित्रवृत्ति के निरोध की दृष्टि से विशिष्ट है।
___ आठवीं सदी के धार्मिक-जगत् का वैविध्यपूर्ण चित्र उद्द्योतनसूरि ने कुवलयमाला में अंकित किया है। शवधर्म के कापालिक, महाभैरव, आत्मवधिक गुग्गलधारक, कारुणिक आदि सम्प्रदाय, अर्धनारीश्वर, महाकाल, शशिशेखर रूप शिव तथा रुद्र, स्कन्द, गजेन्द्र, विनायक आदि इस समय प्रभावशाली थे। कात्यायनी और कोट्टजा देवियाँ शैवों द्वारा पूजित थी। वैदिकधर्म में कर्मकाण्डी, वानप्रस्थों, तापसों की क्रियाएँ प्रचलित थीं। धामिक मठों में अनेक देवताओं की एक साथ पूर्जा-अर्चना होती थी। पौराणिकधर्म अधिक उभर रहा था। विनयवादी, ईश्वरवादी विचारकों के अतिरिक्त तीर्थवन्दना के समर्थकों की संख्या बढ़ रही थी। गंगास्नान एवं पुष्कर-यात्रा पुण्यार्जन का साधन होने से प्रायश्चित के लिए प्रमुख केन्द्र माने जाने लगे थे। प्रयाग का अक्षयवट पाप-मुक्ति के लिए