________________
उपसंहार तारद्वीप के सन्दर्भ द्वारा दक्षिण समुद्र के 'तारणद्वीप' के साथ, स्वर्णद्वीप के उल्लेख द्वारा 'सुमात्रा' के साथ तथा चीन एवं महाचीन के साथ इस विवरण द्वारा भारत के सांस्कृतिक सम्बन्धों का पता चलता है । उद्योतन ने प्राचीन-भारतीय भूगोल की उसी विशिष्ट शब्दावलि का प्रयोग किया है, जो तत्कालीन साहित्य और कला में प्रयुक्त होती थी।
___आठवीं शताब्दी के सामाजिक-जीवन का यथार्थ चित्र उद्द्योतनसूरि ने प्रस्तुत किया है। श्रोत-स्मार्त वर्ण-व्यवस्था उस समय व्यवहार में स्वीकृत नहीं थी। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता होते हुए भी उनकी क्रियाएं शिथिल हो रही थीं। • शूद्र आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होने से प्रगति कर रहे थे। क्षत्रियों के लिए ठाकुर शब्द प्रयुक्त होने लगा था। जातियों का विभाजन हिन्दू, जैन, ईसाई आदि धर्म के आधार पर न होकर आर्य-अनार्य संस्कृति के आधार पर था। प्रादेशिक जातियों में गुर्जर, सोरटु, मरहट्ट, आदि अस्तित्व में आ रही थीं। आधुनिक अरोड़ा जाति आरोट्ट के रूप में प्रचलित थी। विदेशी जाति हूण का क्षत्रिय और शूद्रों में विलय हो रहा था। चावला, खन्ना आदि जातियों का सम्बन्ध इन्हीं से है। उदद्योतन ने तज्जिकों के उल्लेख द्वारा अरबों के प्रवेश की सचना दी है। सामाजिक योजनों की भरमार थी। विवाह में चार फेरे हो लिये जाते थे। तत्कालीन ग्रामों का सामाजिक जीवन स्वतन्त्र और सादा था।
कुवलयमालाकहा से तत्कालीन समाज में व्यवहृत ४५ प्रकार के वस्त्रों ४० प्रकार के अलंकारों का पता चलता है। दुकूल का जोड़े के रूप में प्रयोग होने लगा था। नेत्रपट के दुकूल बनने लगे थे। गंगापट जैसी विदेशी सिल्क भारतीय बाजारों में आ गयो थी। अमोरों द्वारा हंसगर्भ, कर्यासक, रल्लक एवं निर्धनों द्वारा कंथा, चीर आदि वस्त्रों का प्रयोग होता था। अलंकारों एवं प्रसाधनों के उल्लेख से स्पष्ट है कि आभिजात्य समाज का चित्रण कथाकारों को अधिक प्रिय था। श्रेष्ठिवर्ग का तत्कालीन राज्यव्यवस्था में भी प्रभाव था। महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि उपाधियां राजाओं को प्रभुता को द्योतक थीं। स्वामियों की सेवा के लिए 'पोलग्ग उ' शब्द प्रयुक्त होता था, जो सामन्तकालीन जमींदारीप्रथा का प्राचीन रूप था। सुरक्षा की दृष्टि से इस समय राजकीय कर्मचारियों एवं अधिकारियों में वृद्धि हो रही थी। नगरमहल्ल, द्रंग, दंडवासिय, व्यावहारिन् आदि उनमें प्रमुख थे।
__ समाज की यह समृद्धि वाणिज्य एवं व्यापार की प्रगति पर आधत थी। अच्छे-बुरे हर प्रकार के साधन धनोपार्जन के लिए प्रचलित थे। देशान्तर-गमन, सागर-सन्तरण एवं साझीदारी व्यापार में दुहरा लाभ प्रदान करती थी। स्थानीय व्यापार में विपणिमार्ग और मण्डियाँ क्रय-विक्रय के प्रमुख केन्द्र थे। दक्षिण में विजयपुरी, उत्तर में वाराणसी एवं पश्चिम में सोपारक और प्रतिष्ठान देशी-विदेशी व्यापार के मेरुदण्ड थे । सोपारक में १८ देशों के व्यापारियों का एकत्र होना एवं 'देसिय-बणिय-मेलीए' (व्यापारी-मण्डल) का सक्रिय होना