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उपसंहार
उद्द्योतनसूरिकृत कुवलयमालाकहा प्राकृत साहित्य में अनेक दष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । इसमें प्रथम वार कथा के भेद-प्रभेदों में संकीर्णकथा के स्वरूप का परिचय दिया गया है, जिसका उदाहरण यह कृति स्वयं है। गद्य-पद्य की मिश्रित विधा होने से चम्पृकाव्य के यह निकट है। इसमें गाथा के अतिरिक्त अन्य छंदों का प्रयोग हुआ है, जिससे 'गलीतक, 'चित्तक', एवं 'जम्मेहिका' आदि नये छन्द प्रकाश में आये हैं। क्रोध आदि अमूर्त भावों को प्रभावशालो रूप में प्रस्तुत करने से कुवलयमालाकहा को भारतीय रूपात्मक काव्य-परम्परा का जनक कहा जा सकता है। इसकी कथावस्तु कर्मफल, पूनर्जन्म एवं मूलवत्तियों के परिशोधन जैसी सांस्कृतिक विचारधाराओं पर प्राधृत है। उद्योतनसूरि ने पूर्ववर्ती साहित्यिक परम्परा का स्मरण करते हुए 'छप्पण्णय' शब्द द्वारा विदग्ध कवियों की मधुकरी का परिचय दिया है तथा 'पराक्रमांक' 'साहसांक' जैसी कवियों की उपाधियों का संकेत किया है। इससे सम्राट चन्द्रगुप्त द्वारा साहसाक उपाधि धारण किये जाने के उल्लेख को बल मिलता है। इस प्रसंग द्वारा 'बन्दिक' नामक कवि के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। कुव० का ऐतिहासिक महत्त्व भी कम नहीं है । तोरमाण, रणहस्तिन् श्रीवत्सराज एवं राजा अवन्ति आदि के इसमें सन्दर्भ हैं । अवन्ति की पहिचान यशोवर्मन के उत्तराधिकारी अवन्तिवर्मन से की गयी है । इसके अतिरिक्त ग्रन्थ की साहित्यिक सुषमा अनूठी है।
कुवलयमालाकहा के भौगोलिक विवरण से ज्ञात होता है कि इस समय तक गुर्जरदेश और मरुदेश (मारवाड़) की सीमाएँ निश्चित हो गयी थीं। दक्षिणभारत में व्यापारिक और शैक्षणिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण विजयानगरी आधुनिक रत्नगिरि जिले का विजयदुर्ग नामक नगर है । उद्योतनसूरि ने न केवल ३४ जनपदों एवं ४० नगरों का उल्लेख किया है, अपितु ग्रामसंस्कृति को उजागर करने के लिए अन्य ग्रामों के साथ चिन्तमणिपल्लि एवं म्लेच्छपल्लि का भी वर्णन किया है। इससे आर्य और अनार्य संस्कृति के निवास-स्थानों की भेदरेखा स्पष्ट होती है । एशिया के १७ प्रमुख देशों के नाम कुव० में उल्लिखित हैं ।