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प्रमुख धर्म
३६९ मन को पवित्रता के बिना तीर्थयात्रा को निष्फल मानने लगे ये । अन्य जैन आचार्यों की तरह उद्द्योतन ने गंगा-स्नान एवं तीर्थयात्रा को व्यक्ति के कर्म नष्ट करने में समर्थ नहीं माना। उद्द्योतन का तर्क है कि यदि मात्र शरीर-स्नान से पापमुक्ति होती है तो मत्स्य, केवट आदि सभी स्वर्ग चले जाने चाहिए और यदि मात्र चिंतन से स्वर्ग मिल सकता है तो दूर दक्षिण के लोग क्यों यहाँ गङ्गा-स्नान को आते हैं। वहीं बैठे-बैठे वे स्वर्ग जाने की क्यों नहीं सोचते ।' अत: गङ्गास्नान करने एवं सोचने से पाप मुक्ति नहीं है, अपितु वह संयम और तपस्या से सम्भव है।
वैष्णव धर्म
वैष्णव धर्म वैदिकयुग से विकसित होता हुआ गुप्तयुग में पर्याप्त प्रसिद्ध हो गया था। प्रारम्भ में इसका नाम एकान्तिक धर्म था। जब यह साम्प्रदायिक बन गया तो भागवत या पांचरात्र धर्म कहलाने लगा। धीरे-धीरे वासुदेवोपासना में नारायण और विष्णु की उपासना घुल-मिल गयी। विष्णु ने देवताओं में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया था। सम्भवतः आठवीं शताब्दी में शैव सम्प्रदायों का आधिक्य और प्रभाव होने के कारण वैष्णव धर्म की स्थिति में कुछ कमी आयी हो। इस समय वैष्णव धर्म का वही स्वरूप प्रचलित रहा जिसमें भक्ति की प्रधानता थी। शंकर के अद्धैतवाद एवं जगन्मिथ्यात्व के सिद्धान्त ने वैष्णव धर्म के इस स्वरूप को परिवर्तन की और प्रेरित किया ।
__कुवलयमालाकहा में जितने शवधर्म के सन्दर्भ हैं, उतने वैष्णव धर्म के नहीं । स्वयं विष्णु का ही उल्लेख ग्रन्थकार ने नहीं किया है। सम्भवतः इस समय उनके बुद्ध, नारायण आदि अवतार अधिक प्रचलित रहे होंगे, जिनका प्रस्तुत ग्रन्थ में उल्लेख है। साथ ही कुछ वैष्णव देवताओं के नाम भी ग्रन्थ में विभिन्न प्रसंगों में आते हैं । उनके सम्बन्ध में विशेष विवरण इस प्रकार है।
विष्णु-कुव० में 'विष्णु' शब्द का उल्लेख देखने को नहीं मिला। कुवलयचन्द और उसके अश्व की उपमा के प्रसंग में कहा गया है कि वह चक्री के गरुड़ की तरह आकाश में उड़ गया (२७.६) । चक्र एवं गरुड़ दोनों विष्णु से सम्बन्धित हैं। इनसे युक्त विष्णु की मूत्तियाँ भी उद्योतन के समय में थीं। किन्तु विष्णु पूजा आदि के सम्बन्ध में लेखक ने कुछ नहीं कहा है।
जइ अंग-संगमेणं ता एए मयर-मच्छ-चक्काई। केवट्टिय-मच्छंधा पढम सग्गं गया णता ॥ अहव परिचितियं चिय कीस इमो दूर-दक्खिणो लोओ। आगच्छइ जेण ण चितिऊण सग्गं समारुहइ ।।
-वही-४८.३२, ४९.१. २. भण्डारकर, वै० शै० धा० म०, पृ० ११३.
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