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प्रमुख - धर्म
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थे । जो साधु प्रस्थिपंजर मात्र होकर तपस्या में लीन थे वे तपस्वी थे । बनवासी साधुओं को तापस कहा गया है । जैनसूत्रों में तापस धर्म एवं उनके आश्रमों के सम्बन्ध में प्रचुर सन्दर्भ प्राप्त होते हैं ।' आठवीं शताब्दी में तापस मत का पर्याप्त प्रचार था । हरिभद्र ने तापस एवं तपस्विनी का सूक्ष्म वर्णन किया है । " कुवलयमाला के अनुसार तापस गृहस्थों से भोजन, वसन आदि दान में लगे थे ।
पाखण्डी ( पासंडी ) – कुवलयमाला में पाखण्डी शब्द तीन बार प्रयुक्त हुआ है। तीन जगह पाखण्डी साधु को विपरीत आचरण करने वाला कहा गया है । किसी को फुसलाकर साधु बना लेना, किसी की पत्नि के साथ अनैतिक सम्बन्ध रखना " एवं अपनी प्रशंसा करना आदि । यद्यपि यहाँ स्पष्ट नहीं है कि पाखण्डी का सम्बन्ध किस मत के साधुओं के साथ है । वैसे पाखण्डी शब्द का सामान्य प्रयोग श्रमण, भिक्ष ु, तापस, परिब्राजक, कापालिक, पांडुरंग के लिए भी किया जाता था । ७
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भिक्षुक - भिक्षावृत्ति पर निर्भर रहने वाले साधु भिक्षुक कहे गये हैं । कुवलयमाला में इन्हें दान देने का उल्लेख है (१४.६) ।
भोगी - मथुरा के अनाथ मंडप में अन्य लोगों के साथ भोगी साधु भी रहते थे ।' इनके वेष एवं आचरण आदि के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं है । सम्भवतः यहाँ 'भोया' का अर्थ भोपा भी हो सकता है, जो राजस्थान की एक जाति विशेष है |
त्रिदशेन्द्र - कुवलय में वैदिक देवताओं में केवल इन्द्र का ही उल्लेख हुआ है । बलि देने के प्रसंग में अन्य देवताओंों के साथ त्रिदशेन्द्र का भी उल्लेख है । यह इन्द्र का अपर नाम है । सम्पूर्ण ग्रन्थ में इन्द्र का तीन बार उल्लेख हुआ है। ( १४८.११, १९०.३, २५७.१ ) । इन्द्र वैदिक धर्म एवं जैनधर्म में समान रूप से प्रतिष्ठित है । किन्तु जैनधर्म में उसे सरागी कहा गया है । इन्द्र लौकिक जीवन में भी लोकप्रिय रहा है । इन्द्रमह नाम से लोक उत्सव मनाने की परम्परा का
१.
ज० - जै० भा० स०, पृ० ४१२.१५.
२. समराइच्चकहा, प्रथम एवं पंचम भव
३. कुव० १४.६.
४. णिसुवं च मए किल एसो केण वि पासंडिएण वेयारिऊण पव्वाविओ । वही,
१२५.१५.
पर पुरिसो को वि पासंडिओ मह जाय महिलसइति । - वही ० १२५.१८.
पासंडाणं पसंसा तु । -वही० २१८.२८.
७.
ज० - जै० भा०स०, पृ० ४२६ (नोट).
८. एक्कम्मि अणाह- मंडवे ... गुग्गुलिय- भोया । वही ० ५५.१२.
५.
६.