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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन वैदिक धर्म में प्रचलित वर्ण-व्यवस्था पर निर्भर है । उद्द्योतनसूरि को वर्णों के अनुसार धर्म का विभाजन युक्तिसंगत नहीं लगता । अतः वे धर्म की जैनसम्मत परिभाषा देते हैं कि वस्तु-स्वभाव हो धर्म है । अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आचरण करना वास्तविक धर्म है, परलोक आदि का प्रलोभन देने वाली क्रियाएँ धर्म नहीं हैं।'
ध्यानवादी-'ध्यान से मोक्ष प्राप्त होता है, परमात्मा के दर्शन होते हैं तथा उससे हो स्वर्ग की प्राप्ति होती है अतः ध्यान ही सुधर्म है।' किन्तु राजा के विचार से ध्यान के साथ तप, शील और नियम का भी पालन होना चाहिए तभी ध्यान से मोक्ष प्राप्ति की बात सत्य हो सकती है।
एकदण्डो--सिंह के पूर्वजन्म के वृतान्त के प्रसंग में एकदण्डी शब्द का उल्लेख हुआ है। ब्राह्मण ही गार्हस्थ्य धर्म का पालनकर एकदण्डी तापस बन गया, एकदण्डियों के आश्रम के उपयुक्त संयम एवं योग का पालन करता हुआ मरकर वह ज्योतिषि देव हुआ। एकदण्डी साधुओं का सम्बन्ध सम्भवतः वैदिक धर्म से था। जैन साधुओं के इनसे वाद-विवाद होते रहते थे। एक दण्ड धारण करने के कारण इन्हें एकदण्डी कहा जाता रहा होगा। आज भी एक मात्र ब्रह्म की सत्ता के प्रतिपादक वैष्णव साधु एकदण्ड धारण कर चलते हैं। किन्तु बृहज्जातक के टीकाकार महोत्पल ने अजीवक और एकदण्डी सम्प्रदाय को पर्यायवाची माना है।" सम्भवतः आजीवक सम्प्रदाय की मान्यतामों में निश्चितता न होने के कारण इस तरह का भ्रम होने लगा होगा। वस्तुतः एकदण्डी आजीविकों से भिन्न थे। वैदिक धर्म से उनका सम्बन्ध था।।
तपस्वी-तापस-तपस्वी तापस धर्म के साधक को कहा गया है। किन्तु जैन धर्म के अनुसार जिसका मन ज्ञान से, शरीर चरित्र से और इंद्रियाँ नियमों से सदा प्रदीप्त रहती हैं वही तपस्वी है, कोरा वेष बनाने वाला तपस्वी नहीं है। तपस्वी के स्वरूप के सम्बन्ध में कुवलयमाला में अन्यत्र कहा गया है (३४.२५) । आचार्य धर्मनन्दन के शिष्य विभिन्न धार्मिक क्रियाओं में व्यस्त
१. धम्मो णाम सहावो णियय-सहावेसु जेण वर्सेति ।
तेणं चिय सो भण्णइ धम्मो ण उणाइ पर-लोओ ॥---कुव० २०५.१३. २. झाणेण होइ मोक्खो सच्चं एयं ति ण उण एक्केण ।
तव-सील-णियम-जुत्तेण तं च तुब्भेहिं णो भणियं ॥--कुव० २०५.२५ ३. गारुहत्यं पालेऊण एग-डण्डी जाओ। तत्थ य आसम-सरिसं संजम-जोयं पालिऊण,
-कुव० १२५.३१. ४. सूत्रकृतांग, २०६. ५. ज०-जै० भा० स०, पृ० १७ में उद्धृत । ६. ज्ञानैर्मनोवपुर्वृत्तनियमैरिन्द्रियाणि च ।
नित्यं यस्य प्रदीप्तानि स तपस्वी न वेषवान ॥ -कल्प०३३. श्लोक ८७७.