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________________ ३५८ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन रहते थे। कुवलयमालाकहा में वैदिकधर्म से सम्बन्ध रखने वाले निम्नांकित सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। राजा दढ़वर्मन् की दीक्षा के समय उल्लिति निम्न धार्मिक आचार्यों के मत वैदिक धर्म से सम्बन्धित प्रतीत होते है। एकात्मवादी-"अचेतन पदार्थों में स्वयं गतिशील, नित्य-अनित्य से रहित, अनादिनिधन एक हो परमात्मा है, जो परम पुरुष है (२०३.३५)।" यह एकात्मवादियों का सिद्धान्त था। राजा इसे यह कह कर अस्वीकार कर देता है कि यदि एक ही आत्मा होता तो सुख-दुख, अनेक रूप आदि का व्यवहार नहीं होता तथा एक के दुखी होने से सभी दुखी होंगे (२०४.१) । भारतीय दर्शन में एकात्मवादियों का यह सिद्धान्त आत्माद्वैतवाद के नाम से जाना जाता है, उपनिषदों में 'एकादेवः सर्वभूतेषुगूढः' एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म'२ आदि वाक्यों से ही इसका विकास हुआ है । गीता में परमात्मा कृष्ण को प्रतिष्ठापना आत्माद्वैतवाद से ही प्रभावित है। जैन दार्शनिक ग्रन्थों में एकात्मवाद का अनेक तर्कों द्वारा खण्डन किया गया है। पशु-यज्ञ समर्थक (कर्मकाण्डी)-'मन्त्रों द्वारा पशुओं का मारकर गोमेध आदि यज्ञ करना ही धर्म है' । इस मत के समर्थक आचार्य का मत भी राजा ने स्वीकार नहीं किया । क्योंकि कुलदेवी ने इस प्रकार के हिंसक कार्यों को अधर्म बतलाया है। इसी प्रसंग में 'अव्यापार देने' और मातृपितृमेध' का भी उल्लेख है, जो समस्यामूलक है । इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट होता है कि उद्द्योतनसूरि के समय में वैदिक यज्ञ प्रचलित थे एवं उनका प्रचार करने वाले धार्मिक आचार्य थे। जैन साहित्य में वैदिक हिंसक यज्ञों का प्रारम्भ से ही विरोध किया गया है। सोमदेव के समय तक इन यज्ञों के कर्ताओं को यागज्ञ कहा जाने लगा था। सोमदेव ने जैनों को इनके साथ सहवास आदि करने का निषेध किया है। अग्निहोत्रवादी- 'काकबलि द्वारा वैश्वदेव को मनाने एवं अग्नि में अन्न की आहुति देने से देवता प्रसन्न होते हैं तथा संतुष्ट होकर वर (धर्म) प्रदान करते हैं । यह अग्निहोत्रवादी आचार्यों का मत था । राजा को यह भी स्वीकार १. श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.११. २. छान्दोग्योपनिषद्, ६.२, १. 'एक एवहि भूतात्मा'०, अमृतबिन्दु, उप० भ० प० १२ पृ० १५. ३. भगवद्गीता, अध्याय ६.२९. १३.१६, १८.२० आदि । ४. सूत्रकृतांग १.१०, सत्यशासनपरीक्षा-सम्पा०, डा० गोकुलचन्द्र जैन, पृ० २-३. ५. कुव०-२०४.३, ५. ६. जैन- यश० सां० अ०, पृ० ७९. ७. काय-बलि-वइस-देवो कीरइ जणम्मि खिप्पए अण्णं । सुप्पीया होंति सुरा ते तुट्ठा देंति धम्मं तु ॥ -कुव० २०४.७.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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