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________________ ३४८ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन श्रुति के विरुद्ध एवं बुद्धिमानों द्वारा निन्दित किया गया है। यदि आत्मवध से सुगति प्राप्त होने लगे तो विष को भी अमृत हो जाना चाहिए।' पर्वत-पतनक-'जो कोई महाधीर ऊँचे पर्वत पर जाकर अपने को गिराता है, वही उसका धर्म है ।२ यह आत्मवध करने वाले साधुओं का मत था। इसके अनेक प्रकार थे। पर्वत से गिरना, नदी में डूबना, वृक्ष की शाखा से लटकना एवं अग्नि में प्रवेश करना आदि। इन साधनों से अपने जीवन का अन्त करना एक धार्मिक विश्वास बन गया था। हर्षचरित में भगुपतन स्थान में अपने आपको नीचे गिराकर आत्माहुति देने वाले व्यक्तियों का उल्लेख हैकेचिदात्मानंभृगुषुबबन्धुः-। भृगुपतन, काशीकरवट, करीषाग्नि-दहन और समुद्र में आत्मविलय, जीवन को अन्त करने के प्रमुख साधन थे। कुछ विद्वानों ने जैनधर्म को सल्लेखना को भी आत्मवध को श्रेणी में रखा है, किन्तु यह भूल सल्लेखना के मर्म को न समझने के कारण हुई है। अन्य साधनों से आत्मवध करते समय व्यक्ति सरागी एवं स्वर्ग फल आदि की इच्छा करने वाला होने से कुगति प्राप्त करता है, जबकि सल्लेखना परिणामों को शुद्ध करने को एक प्रक्रिया है, जहाँ किसी प्रकार की इच्छा-अभिलाषा को स्थान नहीं दिया जाता।" गुग्गुलधारक-गुग्गुल को धारण करना भी धर्म है (धम्मो जो गुग्गुलं धरइ, २०४.३५)। गुग्गुल धारण करने को धार्मिक क्रियाओं के अन्तर्गत छठी शताब्दी तक सम्मिलित कर लिया गया था। महाकवि बाण ने महाकाल की पूजा के सम्बन्ध में उल्लेख किया है कि नये सेवकों के सिर पर गुग्गुल जलाकर महाकाल को प्रसन्न किया जाता था। सिर पर गुग्गुल जलाने से कपाल की हड्डी तक दिखने लगती थी। सेवक पीड़ा से छटपटाते रहते थे। ये सब रौद्र के भक्त होते थे। आठवीं शताब्दी में इस प्रकार की विकट साधना करने वाले धार्मिकों की भरमार थी। १० वीं सदी में इस प्रकार की सिद्धि करने वालों को साधक कहा जाता था, जो गुग्गुल जलाने की परम्परा के संवाहक थे। दृढ़वर्मन् ने इस प्रकार की आत्मपीड़न की क्रियाओं को तामस मरण कहा है।' एक अन्य प्रसंग में उद्योतन ने मथुरा के अनाथमंडप में अन्य भिखारियों के १. वेय-सुईसु विरुद्धो अप्पवहो णिदिओ य विबुहेहिं । जइ तस्स होइ सुगई विसं पि अमयं भवेज्जासु ॥ -- कुव० २०४.३३. २. वही-२०४.३५. ३. अ०-ह० अ०, पृ० १०५ ४. अत्ताणं मारेतो पावइ कुवई जिओ सराय-मणो । –कुव० २०५.१. जैन-भा० ० यो ६. 'दग्धगुग्गुलवः रौद्राः' -हर्षचरित, पृ० १०३, १५३. ७. साधकलोकनिजशिरोदह्यमानगुग्गुलरसम् । -यशस्तिलक, पृ० ४९. ८. एथं तामस मरणं गुग्गुल-धरणाइयं सव्वं ॥ -कुव० २०५.१.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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