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प्रमुख-धर्म
३४७ मनुष्य की बलि देकर करते थे।' कर्पूरमंजरी में भैरवानन्द का स्वरूप एवं कार्य इसी प्रकार का वर्णित है।
आत्म-वधिक-'हे नरनाथ ! जो जीव साहस एवं बलपूर्वक सत्यक्रिया (आत्मवध) का आलम्बन करता है उसकी सुगति होती है ऐसा हमारे धर्म में कहा गया है। इस प्रकार का कथन करने वाले आचार्य का सम्बन्ध महासाहसिक आदि शैव सम्प्रदाय के साधुओं से रहा होगा, जो आत्मवध एवं आत्म-रुधिरपान आदि भयंकर साधना किया करते थे।
आत्मवध करने के अनेक सन्दर्भ जैन-सूत्रों में मिलते हैं। किन्तु आत्मपीड़न का धामिक-क्रियाओं के साथ सम्बन्ध विशेषतया शैव प्रम्प्रदाय की शाखाओं में ही अधिक प्रचलित रहा । जातकों एवं लौकिक कथाओं में भी सत्यक्रिया (आत्मवध) के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। लगभग छठी शताब्दी में भी कापालिक महाकाल की प्रसन्न करने के लिए आत्ममांस का अर्पण करते रहते थे। पाशुपत मत के अनुयायी द्रविण मुण्डोपहार द्वारा वेताल को प्रसन्न करते थे। चीनी यात्री युवानच्चांग ने प्रयाग के एक मंदिर का वर्णन करते हुए लिखा है कि वहाँ कुछ भक्त स्वर्ग की प्राप्ति के लिये आत्मवध कर रहे थे।' उद्द्योतन के समय तक आत्मवध की परम्परा और विकसित हो चुकी थी। १० वीं सदी में आत्मवध करने वाले साधु अपने को महाव्रती कहने लगे थे, जो अपना मांस काटने के लिये हमेशा हाथ में तलवार लिये रहते थे। प्रात्मवध की इस प्रकार की घटनायें कुछ धार्मिक अवधतों द्वारा आजकल भी यत्र-तत्र दिखायी पड़ती हैं।
जैनधर्म ने आत्मवध द्वारा धार्मिक क्रियायें करने का हमेशा विरोध किया है। इनको लोकमूढता की संज्ञा दी गयी है, जो पापबन्ध का कारण है । इसीलिये दृढ़वर्मन् भी ऐसे धर्म का विरोध करता हुआ सोचता है कि आत्मवध वेद एवं
१. जैन-यश० सां० अ०, पृ० १०४. २. जो कुणइ साहस-बलं सत्तं अवलंबिऊण णरणाह ।
तस्स किर होइ सुगई मह धम्मो एस पडिहाइ ॥ -वही, २०४.३१ ३. ज०-० आ० स०, पृ० ३७५. ४. अ०-ह० अ०, पृ० ८९. X. The Chinese travellers Yuan-chwang, in the first half of the
seventh centuary, describes a temple, at Prayaga (Allahabad), where certain devotees commited suicide in the hope of gaining the paradise of the gods.
-Watters : On Yuan Chwang, 1, p. 362. ६. यशस्तिलक, पृ० १२७.