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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन योगीराज आदि तत्कालीन समाज में प्रसिद्ध थे। शव परिवार में रुद्र, स्कन्द, षड्मुख, गजेन्द्र, विनायक, गणाधिप, वीरभद्र, आदि देवता कात्यायनी, कोट्टजा, दुर्गा, अम्बा आदि देवियाँ, भूत-पिशाच आदि गण सम्मिलित थे, जिनके सम्बन्ध में कुवलयमालाकहा से पर्याप्त जानकारी मिलती है।।
उद्योतनसूरि ने इस ग्रन्थ में राजा दृढ़वर्मन की दीक्षा के समय जिन ३३ प्राचार्यों के मतों का उल्लेख किया है उनमें शैव, वैष्णव, वैदिक, पौराणिक, आजीवक आदि धर्मों के विभिन्न सम्प्रदायों का समावेश है। धार्मिक आचार्य अपने-अपने मत का परिचय देते हैं। राजा उनके हिताहित का विचार करता है। इस सन्दर्भ में शैव धर्म के निम्नांकित सम्प्रदायों का वर्णन उपलब्ध होता है ।
अद्वैतवादी-'भक्ष्य-अभक्ष्य में समान तथा गम्य-अगम्य में कोई अन्तर नहीं है (यह) हमारा उत्तम धर्म अद्वैतवाद कहा गया है। इस विचारधारा का सम्बन्ध वेदान्त के अद्वैतवाद से नहीं है। वस्तुतः ऐसे आचार्यों का सम्बन्ध उस समय कापालिकों आदि से अधिक था। शैव सम्प्रदाय की कई शाखाएँ खानपान एवं आचरण में उचित-अनुचित का विचार नहीं करती थीं। १०वीं शताब्दी तक कौल सम्प्रदाय की यह मान्यता बन चुकी थी कि सभी प्रकार के पेय-अपेय, भक्ष्य-अभक्ष्य, आदि में निःशंकचित्त होकर प्रवृत्ति करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।२ मांसाहार और मद्य का व्यवहार इनकी धार्मिक क्रियाओं में सम्मिलित था।३ राजा दृढ़वर्मन् ऐसी क्रियाओं को लोक एवं परलोक के विरुद्ध कहकर अस्वीकार कर देता है। क्योंकि इन्द्रियों का निग्रह करना ही वास्तविक धर्म है।
सद्वैतवादी-हे राजन्! आप ठीक कहते हैं। पांच पवित्र आसनों से युक्त हमारा उत्तम धर्म सद्वैतवादी कहा गया है। इस मत के प्राचार्य का किस सम्प्रदाय से सम्बन्ध था यह स्पष्ट नहीं है। क्योंकि पांच पवित्र उपासनाओं (आसनों) को स्पष्ट नहीं किया गया। किन्तु राजा के इस खण्डन-युक्त कथन द्वारा कि स्वाद-इंन्द्रिय के अनुकूल भोजन करना एवं स्पर्श-इन्द्रिय के सुख आदि
१. भक्खाभक्खाण समं गम्मागम्माण अंतरं णत्थि । ___ अद्वैत-वाय-भणिओ धम्मो अम्हाण णिक्खुद्दो ॥-वही, २०४ : १९ २. सर्वेषु पेयापेयभक्ष्याभक्ष्यादिषु निःशंकचित्तोवृतात् इति कुलाचार्याः ।
-यशस्तिलक, पृ० २६९, उत्तरार्घ ३. रण्डाचण्डादिक्खियाधम्मदारा मज्जं मंसं पिज्जए खज्जए च । भिक्खा भोज्जं चम्मखण्डं च सेज्जा कोलो धम्मो कस्स न होई रम्मो ॥
-करमंजरी, १-२३ :, भावसंग्रह, १८३ ४. एयं लोय-विरुद्धं परलोय-विरुद्धयं पि पच्चक्खं । --कुव०, २०४.२१.
विण्णप्पसि देव फुडं मंच-पवित्हि आसण-विहीय । सद्दइत-वाय-भणिओ धम्मो अम्हाण णिक्खुद्दो ॥ -वही २०४.२३.