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मूत्ति-कला
३३९ किसी जलयन्त्र विशेष से होना चाहिए, किन्तु उद्योतन ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है । अन्यत्र केश सम्हारने के व्याज से स्तनभाग दिखाती हुई कुवलयमाला का उल्लेख है-केससंजयण-मिसेण-वंसियं थणंतर (१५९.३०)। यह प्राचीन मूत्तिकला की एक प्रसिद्ध भाव-भंगिमा थी । चन्डसोम आदि पांच व्यक्तियों द्वारा अपनी-अपनी रत्न की प्रतिमाएं स्थापित करने का भी उल्लेख कुवलयमाला में है।' इससे ज्ञात होता है कि देवों के अतिरिक्त व्यक्तिगत मूत्तियाँ भी निर्मित की जाने लगी थीं।
प्रतिमाओं के विभिन्न आसन :
उद्योतन ने धर्मनन्दन मुनि के शिष्यों की चर्या के सम्बन्ध में ध्यान के विभिन्न आसनों का उल्लेख किया है । यथा
१. प्रतिमागता (पडिमा-गया) २. नियम में स्थित (णियम-ट्ठिया) ३. वीरासण (वीरासण-ट्ठिया) ४. कुक्कुट आसन (उक्कुडुयासण) ५. गोदोहन आसन (गोदोहसंठिया) ६. पद्मासन (पउमासण-ट्ठिय)
प्रतिमाविज्ञान में आसनों का विशेष महत्त्व है। किस देवता की मूर्ति किस आसन में बनायी जाय इसमें दो बातों का ध्यान रखा जाता था। प्रथम, देव के स्वभाव एवं पद-प्रतिष्ठा के कारण उसके अनुकूल आसन स्थिर किया जाता था। दूसरे, ध्यान एवं योग की सिद्धि के लिए प्रतिमाओं को विशेष आसन प्रदान किये जाते थे।३ क्योंकि उपास्य एवं उपासक दोनों में एकात्मकता स्थापित करने के लिए दोनों के ध्यान के आसनों में भी एकरूपता आवश्यक समझी जाती थी। कुवलयमाला के उपर्युक्त सन्दर्भ में जैन साधु उन्हीं आसनों (प्रतिमाओं) में स्थित होकर ध्यान कर रहे थे, जिनसे उनकी चित्तवृत्ति का निरोध हो सके । इन आसनों का प्रतिमा-स्थापत्य में भी प्रभाव रहा है।
उपर्युक्त आसनों में से गोदोहन-आसन को छोड़कर शेष सभी भारतीय मूत्तियों में प्रयुक्त हुए हैं। हिन्दू, जैन एवं बौद्ध इन सभी मूत्तियों में पद्मासन प्रतिमाएं उपलब्ध हैं । ऐसी प्रतिमाओं का पूजा के लिए अधिक प्रयोग होता है।
१. णिम्मवियाई अत्तणो-रूव-सरिसाई रयण-पडिरूवयाई-१०२.२९. २. जिण-वयणं झायंता अण्णे पडिमा-गया मुणिणो-३४.२८ ३. 'ध्यान योगस्य संसिद्धय प्रतिमाः परिकल्पिताः' । ४. द्रष्टव्य, शु०-भा० स्था०, पृ० ४५६.