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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन गया है ।' कालिदास ने स्तम्भों पर बनी योषित मूर्तियों का उल्लेख किया है। उद्द्योतनसूरि ने इन्हीं को शालभंजिका एवं वरयुवति कहा है। शालभंजिकाओं की परम्परा तुलसीदास के समय में भी स्थित थी, जिसे उन्होंने प्रतिमा खंभनि गढ़ि-गढ़ि काढी कह कर व्यक्त किया है। इस प्रकार भारतीय स्थापत्य की यह विशेषता लगभग दो सहस्र वर्षों तक अक्षुण्ण बनी रही है।३ विभिन्न पुत्तलियां
उद्द्योतन ने इन प्रसंगों में पुत्तलियों का उल्लेख किया है। कुवलयचन्द्र से पराजित होकर जब सेनापति ने अपने भिल्लपुरुषों को आदेश दिया कि सार्थ को मत लूटो तो वे भित्ति में लिखित पुतली के समान स्तम्भित हो गयेकुड्डालिहिया इव पुत्तलया थंभिया (१३८.२)। भानुमती ने मरकतमणि की पुतली की सदृश श्याम रंग की बालिका को जन्म दिया-जाया मरगय-मणिबाउल्लिया इव सामलच्छाया बालिया (१६२.८) । कुवलयमाला के मणिमय पुतले के सदृश सुकुमार हाथ-पैरों वाला पुत्र उत्पन्न हुआ। विद्याधर राजकुमारी की मृत्यु होने पर वह निमीलित लोचन एवं निश्चल अंगोपांग वाली दतनिर्मित पुतली के सदृश हो गयी-दंत-विणिम्मियं पिव वाउल्लियं ति-(२३६.१) । कामगजेन्द्र ने महागजेन्द्र के दांतो से गढ़ी हुई पुतली के सदृश उस विद्याधर वालिका को अग्निसंस्कार के लिए चिता पर रख दिया।"
इस विवरण से ज्ञात होता है कि दीवालों में पुतलियों के चित्र बनाये जाते थे, मरकत मणि की पुतलियां बनती थीं, हाथीदांत की पुतलियां बनायी एवं गढ़ी जाती थीं। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञात होता है कि ७-८वीं सदी मेंस्थापत्य एवं मत्तिकला आदि का चरम विकास होने के कारण साहित्य में उनकी उपमा देना एक परम्परा बन गयी थी। उद्योतन के पूर्व महाकवि बाण ने स्थापत्य, चित्र, शिल्प एवं मृण्मयमूत्ति कलाओं से उत्प्रेक्षाएं ग्रहण की हैं ।
अन्य फुटकर मूत्तियां
उदद्योतन ने वापी के वर्णन के प्रसंग में सोपान पर वनायी गयी स्वर्ण की प्रतिहारी का उल्लेख किया है । इस स्वर्ण-निर्मित प्रतिहारी का सम्बन्ध
१. अ०-ह० अ०, पृ० ६२ २. रघुवंश, १६-१७ ३. अ०-का० सां० अ०, पृ० ३२ ४. सुकुमाल-पाणि-पाओ जाओ मणिमय-वाउल्लओ विय दारओ त्ति ।-२१२.२५ ५. पक्खिता य सा महागइंदं-दंत-घडियव्ववाउल्लियाविज्जाहर-बालिया-२३९.२६. ६. अ०-का० सां० अ०, पृ० २६६. ७. मणि-सोमाण-विणिम्मिय-कंचण-पडिहार धरिय-सिरिसोहा-९४.१७.