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भवन-स्थापत्य
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उल्लेख किया है, उसमें आठ प्रकार के मेघों की रचना की जाती थी।' हेमचन्द्र ने यन्त्रधारागृह में चारों ओर से उठते हुए जलौध का वर्णन किया है। इस तरह ज्ञात होता है कि यन्त्रजलघर द्वारा मायामेघ बनाने का प्रचलन ६-७ वीं सदी से १२ वीं सदी तक बराबर बना रहा। न केवल यन्त्रघारागृह में, अपितु भवन के अलंकरणों में भी मायामेघ बनाने की प्रथा गुप्तायुग से मुगलकाल तक बनी रही।
यन्त्रशकुन-उद्योतन ने यन्त्रशकुन का उल्लेख वासभवन सज्जा के सन्दर्भ में किया है। अतः कहा नहीं जा सकता कि यन्त्रधारागृह से इस यन्त्रशकुन का क्या सम्बन्ध था ? सम्भवतः यह वासभवन का हो कोई अलंकरण विशेष रहा होगा, जो पक्षी के आकार का बना होगा तथा जिसे नियोजित कर देने पर मधुर-संलाप होने लगता होगा। वासभवन में यन्त्रशिल्पों को रखे जाने की प्राचीन परम्परा थी। सोमदेव ने यशोमती के भवन के यन्त्रपर्यंक और यन्त्र-पुत्तलिकाओं का वर्णन किया है, जिसके यान्त्रिकविधान का परिचय डा. गोकुलचन्द्र जैन ने 'यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन' (पृ० २६२) में दिया है।
जलयन्त्र-उज्जयिनी नगरी के वर्णन में तथा वापी में जलयन्त्र का उल्लेख करते हुए उद्योतन ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि वह किस प्रकार का जलयन्त्र था। भोज के अनुसार कमलवापी में कृत्रिम शफरी, मकरी तथा अन्य जलपक्षी बनाना चाहिए। अतः सम्भव है, कुवलयमाला में उल्लिखित यह जलयन्त्र (९४-३१) किसी जलजीव के आकार का रहा हो, जिसके मुख से धाराएँ निकलती होगी।
१. संमरांगणसूत्रधार, ३१.११७, १४२. २. कुमारपालचरित, ४.२६. ३. द्रष्टव्य, अ०-का० सां० अ०, पृ० २१५.
कत्रिमशफरीमकरीपक्षिभिरपि चाम्बसम्भवर्यक्ताम । कुर्यादम्भोजवतीं वापीमाहार्य योगेन ॥-समरांगणसूत्रधार, ३१.१६३.