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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
स्कन्धावार के उपर्युक्त विवरण से सांस्कृतिक महत्त्व की निम्नोक्त जानकारी
मिलती है।
१. स्कन्धावार को स्कन्धावारनिवेश एवं कटक सन्निवेश कहा जाता था ( संपत्तो कडय- संणिवेसं १९७.११, २४३.२७, २४४.१७)।
२. स्कन्धावार राज्यद्वार के बाहर के प्रदेश का नाम था, जहाँ तक पोरजन विदाई देने आते थे ।
३. स्कन्धावार अस्थायी निवास व्यवस्था का नाम था, जहाँ आवश्यकता की सभी वस्तुयें उपलब्ध होती थीं ।
४. स्कन्धावार राजकीय स्थापत्य का प्रमुख अंग था ।
५. स्कन्धावार में सैनिक - प्रयाण का वर्णन उपलब्ध होता है ।
इस प्रसंग में उद्योतन द्वारा प्रयुक्त 'परिहिज्जंति समायोगे' शब्दों का प्रयोग अधिक महत्त्वपूर्ण है । गुजराती अनुवादक ने इस पद का अर्थ 'स्थिरता को त्याग दिया' किया है, जो ठीक नहीं है । समायोग ७-८वीं सदी में सैनिक - वेषभूषा के लिए एक पारिभाषिक शब्द था । बाण ने कादम्बरी (अनु० २५७ ) में कुमार की वर्दी को समायोग कहा है । हर्षचरित में सम्राट् हर्ष का सैनिक अभियान भी समायोग ग्रहण से प्रारम्भ होता है ( पृ० १५७ ) । अतः यहाँ पर भी उद्द्योतन का आशय सैनिकवर्दी पहिन लेने का है। इससे स्पष्ट है कि 'समायोग' सैनिकों के किसी सिले हुए वस्त्र के लिए प्रयुक्त होता था । शंकर ने 'समायोग' को दर्जियों का पारिभाषिक शब्द कहा है (हर्ष ० पृ० २०७ ) ।
प्राचीन भारतीय राजप्रासाद की रचना में सबसे बड़ी इकाई स्कन्धावार होती थी । उसके भीतर राजकुल और राजकुल के भीतर धवलगृह होता था । स्कन्धावार पूरी छावनी की संज्ञा थी, जिसमें हाथी, घोड़े, सेना, सामन्त एवं रजवाड़ों का पड़ाव भी रहता था । महाकवि बाण द्वारा हर्षचरित के वर्णन से स्पष्ट होता है कि स्कन्धावार राजकुल के सामने का बहुत बड़ा मैदान कहलाता था, जहाँ राजा से मिलने आने वाले व्यक्ति ठहरते थे । इसी मैदान में बाजारहाट भी होते थे, जिन्हें विपणिमार्ग कहा जाता था । विपणिमार्गों के बाद राजहोता था, जहाँ कड़ा पहरा रहता था । '
महाकवि वाण द्वारा प्रस्तुत स्कन्धावार के इस स्थापत्य की पुष्टि उद्योतनसूरि ने की है । कुवलयचन्द्र जब विजयपुरी नगरी के राजद्वार तक पहुँचता है तो उसे प्रथम अन्य स्थानों पर भी ठहरना पड़ता है । कुवलयमाला के इस वर्णन से तत्कालीन स्थापत्य का यह क्रम ज्ञात होता है।
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१. नगर की उत्तरदिशा में पनघट ( १४९.२७,३० )
२. विभिन्न प्रान्तों से आये हुए छात्रों का गुरुकुल (मठ) (१५०.१६,१७)
१. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २०३.