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चित्रकला
भित्तिचित्र
राजमहलों
प्राचीन भारत में भित्तिचित्र प्रमुखतः तीन स्थानों पर बनाये जाते थे । गुफाओं के अन्तर्गत, चैत्यालयों की दीवालों पर एवं भवनों की भित्तियों पर । शयनागार में भित्तिचित्र बनवाने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । तदनुसार ही उद्योतन ने रानी प्रियंगुश्यामा के शयनागार एवं कामिनियों के वास भवनों में भित्तिचित्रों का उल्लेख किया है । इन चित्रों की सजावट तथा देखभाल के लिये एक अलग परिचारिका भी होती थी । प्रियंगुश्यामा के शयनागार में भित्तिचित्रों के साथ पूर्णिमा की पंक्तियाँ तथा मंगलदर्पणों का उल्लेख किस कारण हुआ है, स्पष्ट नहीं हो सका । सम्भवतः छत की दीवाल पर बने हुए चन्द्रमा के चित्रों एवं दीवालों के चित्रों को बड़े-बड़े शीशों में प्रतिबिम्बित किया जाता होगा, जिससे सद्याप्रसूता रानी पलंग पर लेटे-लेटे ही इन चित्रों का देखकर मन बहला सके ।
राजसभाओं को चित्रित करने के प्राचीन भारतीय साहित्य में उल्लेख मिलते हैं।' कुव० में राज्याभिषेक के समय राजसभा को चित्रित करने के उल्लेख से ज्ञात होता है कि मांगलिक अवसरों पर चित्रकारी करना भी शुभ माना जाता था । आज भी विवाह आदि के अवसरों पर घर की दीवालों एवं द्वार पर चित्र बनवाये जाते हैं ।
पटचित्र
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गुप्तयुग से मध्ययुग तक के भारतीय साहित्य में पट-चित्रकला के प्रचुर उल्लेख प्राप्त होते हैं । हर्षचरित में बाजार में पटचित्र दिखाकर आजीविका कमाने वालों का उल्लेख है । इनके पटचित्र परलोक की यातनाओं एवं वैभव से पूर्ण होते थे । उदयसुन्दरीकथा में कुंडलित पटचित्र का उल्लेख है, जिसे फैलाकर राजा स्वयं अपने चित्र को देखता है । समराइच्चकहा में पटचित्रदर्शन के अनेक उल्लेख हैं । जिनसेन ने पटचित्र दर्शन द्वारा प्रत्यक्ष में मनोरंजन तथा परोक्ष में पूर्वजन्म के वृतान्त को स्मरण करने का वर्णन किया है । ४ नायकुमारचरित में पटचित्र उपहार स्वरूप भेंट किये जाने का उल्लेख है । पंचदशी नामक वेदान्त ग्रन्थ में पटचित्र कैसे बनाये जाते थे इसका विस्तृत वर्णन है ( पंच० ६.१, ३) । उद्योतनसूरि ने कुवलयमालाक हा में पटचित्रकला की इस प्रसिद्धि को और आगे बढ़ाया है तथा इस कला के विकसित रूप को प्रस्तुत किया है ।
उ०- प्रा० सां० भू० - ( चित्रकला) ।
१.
२. हर्षचरितम् - बाण, पृ० १५१.
३. उदयसुन्दरीकथा, अध्याय, ३, पृ० ५१.
४.
या विलिखितं पूर्वभवसम्बन्धिपट्टकम् ।
क्वचिद् किंचिन्निगूढान्तः प्रकृतं चित्ररंजनम् ॥ - आदिपुराण ६.१९०.