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कुवलयमालाकहो का साहित्यिक स्वरूप
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ग्रन्थ के भी लक्षण नहीं मिलते । अतः इसके विशिष्ट स्वरूप के कारण विद्वानों ने इसे चम्पूग्रन्थ स्वीकार किया है ।
डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने कुवलयमालाकहा में चम्पूकाव्य के निम्नांकित लक्षणों की ओर संकेत किया है'
१. विभाव, अनुभाव और संचारी भावों का चित्रण प्रायः पद्यों में ही किया गया है ।
२. दृश्यों और वस्तुओं के चित्रण में प्रायः गद्य का प्रयोग किया
गया ।
३. गद्य और पद्य कथानक के सुश्लिष्ट अवयव हैं । दोनों में किसी एक के एकाध अंश के निकाल देने पर कथानक में यत्र-तत्र विश्रृङ्खलता आ जाती है । अतः इसमें संलिष्ट रूप से गद्य-पद्य का सद्भाव पाया जाता है ।
४. शैली की दृष्टि से कवि ने चम्पूविधा का अनुकरण किया है । इसमें दृश्य और भावों के चित्रण में शैलीगत भिन्नता है ।
५. वस्तु-विन्यास में प्रबन्धात्मकता आद्योपान्त व्याप्त है । परिवेश में ही घटनावलि को प्रस्तुत किया गया हैं ।
६.
काव्य के
धर्मतत्त्व के रहने पर भी काव्य की आत्मा दबी नहीं है । कवि ने काव्यत्व का पूर्ण निर्वाह किया है ।
७. चरित, प्राख्यान, पात्रों की चेष्टाएँ, नायक और नायिका के क्रियाकलाप आलंकारिक रूप में प्रस्तुत किये गये हैं ।
८. अन्योक्तियों द्वारा चरित्रों की व्यंजना की गई है ।
उपर्युक्त जिन विशेषताओं का उल्लेख डा० शास्त्री ने कथा, चम्पू आदि सभी साहित्यिक विधाओं में समान हैं । में वर्णन होना - यही एक ऐसी विशेषता है जिसके आधार पर कुव० को चम्पू कहा जा सकता है । अन्यथा चम्पूकाव्य के अन्य लक्षण इसमें प्राप्त नहीं होते । जैसे - कथावस्तु का आश्वासों में विभाजन, दृश्य और भाव चित्रण की शैलीगत भिन्नता आदि ।
किया है वे काव्य, गद्य और पद्य दोनों
कुवलयमालाकहा को चम्पूकाव्य कहने पर एक प्रश्न यह उठता है कि संस्कृत में जो विपुल नीति कथा साहित्य है वह भी गद्य-पद्यमय है । फिर क्या इसी आधार पर उसे चम्पूकाव्य कहना उचित होगा ? मेरा तो अभिमत है कि कुवलयमालाकहा को ग्रन्थकार के अनुसार कथा कहना ही उपयुक्त होगा, जिसकी पूर्ववर्ती और परवर्ती परम्परा प्राप्त होती है - प्राकृत में भी और संस्कृत में
१. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० ३६०