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________________ १० कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन प्रकृति की सम्पूर्ण विभूति के उज्ज्वल, सुन्दर चित्र पाये जाते हैं। इन कथाओं की यह विशेषता होती है कि ये पाठक को धार्मिक वर्णनों से ऊबने नहीं देतीं। धर्मकथा के चार भेद पाये जाते हैं-आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेगिनी और निर्वेदिनी धर्मकथा । आक्षेपिणीकथा को आजकल की प्रधान कहानी माना जा सकता है । यह पाठक के मन के अनुकूल होती है-अक्खेवणी मणोणुकूला । विक्षेपिणीकथा में प्रतिपाद्य लक्ष्य के प्रतिकूल वस्तुओं के दोष प्रगट किये जाते हैं, अतः यह प्रारम्भ में मन के प्रतिकूल होती है-विक्खेवणी मणो-पडिकला। संवेगिनीकथा श्रंगार या वीररस से प्रारम्भ होकर वैराग्य के रूप में समाप्त होती है। जोवन के प्रति स्वस्थ दष्टिकोण देना और मानवीय अनुभूतियों को जगाना इन कथाओं का लक्ष्य है। निर्वेदिनीकथा पापाचरण से निवृत्त कराने के लिए कही या लिखी जाती है। इसमें धर्मकथा के सभी रूप पाये जाते हैं। उद्द्योतनसूरि ने इस प्रकार की चतुर्विध धर्मकथा के रूप में कुव० को लिखा है-अम्हेहि वि एरिसा चउन्विहा धम्म-कहा-समाढत्ता--- (५.११) । उद्योतन द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त कथाओं के भेद-प्रभेद इस प्रकार हैं कथा के भेद-प्रभेद सकलकथा खंडकथा उल्लापंकथा परिहासकथा संकीर्णकथा धर्मकथा धर्मकथा अर्थकथा कामकथा प्राक्षेपिणी विक्षेपिणी संवेगिनी निर्वेदिनी चम्पूकाव्यत्व कुवलयमालाकहा को चम्पूकाव्य कहा गया है-प्राकृतभाषा निबद्धाचम्पू. स्वरूपा महाकथा ।' क्योंकि प्राकृत साहित्य के इतिहास में कुवलयमालाकहा अपने निजी स्वरूप के कारण प्राकृत साहित्य की सभी विधाओं से भिन्न है । यद्यपि उद्द्योतनसरि ने इसे संकीर्णकथा कहा है, किन्तु गद्य-पद्य का इसमें मिश्रण आदि होने से यह शुद्ध कथाग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। इसमें चरित १. प्राकृत कथाओं के भेद-प्रभेदों के लिए द्रष्टव्य (१) हेमचन्द्र का काव्यानुशासन (२) लीलावईकहा, डा० उपाध्ये, का इण्ट्रोडक्शन एवं (३) बृहत्कथाकोष का इण्ट्रोडक्शन, पृ० ३५ २. प्राकृत कुवलयमालाकहा के प्रकाशित मुख पृष्ठ पर उल्लिखित
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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