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________________ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन कुवलयमालाकहा में वर्णित इस लोकनाट्य की तुलना वर्तमान में प्रचलित 'भवाइ नाट्य' से की जा सकती है । दोनों में निम्न साम्य नजर आता है - ( १ ) दशहरे के वाद गाँव-गाँव घूमना, (२) निम्न वर्ग के लोगों द्वारा प्रदर्शन, (३) मनोरंजन की प्रधानता, (४) रंगमंच की सरलता, (५) शृंगार रस की प्रधानता, (६) अभिनय के साथ गीतों का गायन, (७) वाद्य संगीत से प्रारम्भ होना, (८) स्त्री एवं पुरुषों द्वारा अभिनय तथा ( ९ ) रात्रि में नाट्य का प्रदर्शन आदि । ' २८० लोकनाट्य के अन्य प्रकार - उद्योतनसूरि ने उपर्युक्त लोकनाट्य के अतिरिक्त निम्न लोकनृत्यों का भी ग्रन्थ में उल्लेख किया है: - १. रासमंडली (१४८.१४), २. डांडिया नृत्य ( ८.२३), ३. चर्चरी नृत्य ( १४५.५), ४. भाण ( १५०.५२ ) ५. डोम्बिलक एवं ६ सिग्गडाइय ( १५०.५२ ) । इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: । रासमण्डली - कुवलयमाला में नृत्य का दो बार उल्लेख हुआ है । सुधर्मा स्वामी रासनर्तन के छल से पाँच सौ चोरों को प्रतिबोधित करते हैं - रासचण-च्छले - ( ४.२५ ) । इस रास नृत्य में चर्चरी गायी जाती है - इमाए चच्चरीए संबोहियाइं । तथा युवतियाँ वलय ताल की लय पर नृत्य करती हैंरासम्म जइ लभइ जुवई - सत्थप्रो - ( ४.२६) अन्यत्र शरद् ऋतु के त्योंहारों का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने रासमंडली का वर्णन इस प्रकार किया है:गाँव के आँगन में गोष्ठी के युवक-युवती जन कमलों का अलंकार धारण कर वलयावली की ताल पर मधुर गीत गाते हुए रासमंडली में अनेक प्रकार की लीलायें करते थे । मध्यदेश की युवतियाँ भी रासमंडली में नाच कर अपने वलयों से मनोहर आवाज करती थीं ( ७.११) । भारतीय नाट्य परम्परा में रासलीला का प्रमुख स्थान रहा है । प्राचीन समय से रासनृत्य के उल्लेख प्राप्त होते हैं । किन्तु हरिवंश (२.२०, ३५, नीलकंठ) में कहा गया है कि जब एक पुरुष के साथ अनेक स्त्रियाँ नृत्य करें तो उसे हल्लीसक-क्रीडा कहते हैं, वही रास - क्रीडा कहलाती है । हर्षचरित ( पृ० २२) में मण्डलीकृत नृत्य को हल्लीसक कहा गया है । आगे चलकर शंकर ने रास की परिभाषा को और स्पष्ट किया है-आठ, सोलह या वंत्तीस व्यक्ति मंडल बनाकर जब नृत्य करें, तो वह रासनृत्य कहलाता है । कुवलयमाला का उपर्युक्त १. श्याम परमार, लोकधर्मी नाट्य परम्परा, पृ० ५१.५४. २. कोमल-बाल- मुणाल.... गीय- रासमंडली - लीला वावडेसु गामंगण-गोट्ठ जुवाण-जुवल ३. ४. जणेसु – १४८.१३, १४ । - द्रष्टव्य, आर० बी० जोशी, श्री रासपंचाध्यायी -सांस्कृतिक भूमिका, पृ० १३. अष्टौ षोडश द्वत्रिशद् यत्र नृत्यन्ति नायकाः । पिण्डीबन्धानुसारेण तन्नृत्तं रासकं स्मृतम् ॥ - रास और रासान्वयी काव्य, प्रस्तावना, पृ० ११
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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