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नाट्य कला
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प्रेमी के साथ आकर वहाँ बैठी हुई है । थोड़ी देर बाद चंडसोम ने यह सुना कि वह युवती अपने साथ के युवक को पीछे-पीछे उसके घर आने का संकेत देकर चली गयी है, तो उसका सन्देह पक्का हो गया (४६.४७) । तभी नाटक मंडली में से एक ग्रामनटी ने यह गीत गाया- 'जो जिसे प्रियतमा मानता है, यदि उसके साथ दूसरा रमण करता है (और) यदि वह (उसे) जीवित जानता है तो वह उसके प्राण ले लेता है' - ताव इमं गीययं गीयं गाम-णडीए - (४७.५, ६) । इसे सुनकर चंडसोम गुस्से से लाल हो गया और अपनी पत्नी तथा उसके प्रेमी को मारने के लिए रंगशाला से निकल गया (४७.९) ।
चंडसोम की आगे की कथा प्रस्तुत लोकनाटय से सम्बन्धित नहीं है । किन्तु उक्त कथांश से ही इस सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है । यथानाटक प्रदर्शन के बीच-बीच में उपदेशात्मक गीत भी गाये जाते थे । नाटक में नट एवं नटी दोनों मिलकर प्रदर्शन करते थे । तथा नाटक प्रदर्शन के लिए रंगमंच की व्यवस्था की जाती थी ।
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उक्त विवरण में उद्योतनसूरि ने यद्यपि यह स्पष्ट नहीं किया है कि नाटक प्रदर्शन का विषय क्या था तथा रंगमंच की कैसी व्यवस्था की गयी थी । किन्तु प्रतीत होता है कि नाटक शृंगार प्रधान ही रहा होगा। तभी युवकयुवतियों को वहाँ अधिक भीड़ थी, प्रेमी-प्रेमिका में मिलन सम्वन्धी वार्तालाप हो रहा था तथा ग्रामनटी ने भी इसी प्रकार का गीत भी प्रस्तुत किया था । यह गीत उस नाट्यकथानक का अंतिम निष्कर्ष भी हो सकता है । भरत के नाट्यशास्त्र में ( २७. ६१ ) भी शृंगार रस के नाटक सूर्यास्त के पश्चात् खेले जाने का उल्लेख है ।
रंगमंच - रंगमंच की अवस्था लोकनाट्यों में बड़ी सरल होती है ! राजस्थानी लोकनाट्यों में लगभग सभी नाट्यों के रंगमंच ऐसे निर्मित होते हैं कि यदि चारों ओर से नहीं, तो भी तीन तरफ से तो जनता अधिक से अधिक संख्या में इन नाट्यों को देख सकती है ।' कुवलयमाला के उक्त प्रसंग से ज्ञात होता है। कि केवल रंगमंच में ही सम्भवतः प्रकाश की व्यवस्था थी । दर्शकों के बैठने के स्थान पर अंधेरा रहता होगा। तभी चंडसोम अपने पीछे बैठी किसी अन्य युवती को देख न पाने के कारण अपनी पत्नी मान बैठता है । उद्योतन ने अन्यत्र भी रंगमंच का उल्लेख किया है । रंगमंच में विलासिनियों के नृत्यों का प्रायोजन होता था, जिनमें अपार भीड़ होती थी । तथा विवाह आदि विशेष अवसरों पर रंगशालाओं को सजाया जाता था - कोरंति मंच - सालाप्रो - (१७०.२२) ।
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रा० लो०, पृ० १.
२. सुंदरयर- सुर-सय- संकुले वि रंगम्मि णच्चमाणीए – ४३.१२