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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन करके निकाले गये अमृतसदृश है ।' तथा वह सुन्दर वर्ण एवं पद-रचना से युक्त सज्जन पुरुषों के वचन की भाँति सुखदायी है।'
संस्कृत-ग्रन्थ में उद्योतनसूरि ने संस्कृत भाषा का उपयोग प्रायः उद्धरण के रूप में किया है। उद्धरण पद्य के रूप में भी हैं और गद्य के रूप में भी। डा० ए० एन० उपाध्ये ने कुवलयमाला के संस्कृत उद्धरणों के सम्बन्ध में अपने एक निवन्ध में जानकारी प्रस्तुत की है। कुल मिलाकर ग्रन्थ में संस्कृत का पाँच बार उल्लेख हुआ है तथा चौदह उद्धरण दिये गए हैं। उनके मूल सन्दर्भो को खोजने से ग्रन्थकार के पाण्डित्य का पता चल सकता है।
उदद्योतनसरि ने संस्कृत के लक्षण आदि का इस प्रकार परिचय दिया है कि संस्कृत भाषा अनेक पद, समास, निपात, उपसर्ग, विभक्ति, लिंग, परिकल्पना, कुविकल्प आदि दुर्गम दुर्जन के हृदय की भाँति विषम है। इस वर्णन से प्रतीत होता है कि उद्द्योतनसूरि का संस्कृत के प्रति कोई विशेष झुकाव नहीं था और उस समय भी संस्कृत अपनी क्लिष्टता के कारण जनसामान्य के लिए कष्टदायक थी। सम्भवतः वह युग प्राकृत आदि देशी भाषाओं के प्रयोग का युग था इसलिए संस्कृत जैसी परम्परागत भाषाओं के प्रति रुचि का कम होना स्वाभाविक है।
अपभ्रंश-उद्योतनसूरि ने ग्रन्थ में अपभ्रंश भाषा का प्रयोग कौतूहलवश अथवा परवचन के रूप में किया है (४.१३)। अपभ्रंश के पद्यांश अथवा गद्यांश यद्यपि ग्रन्थ में सर्वत्र कहीं न कहीं उपलब्ध होते हैं, किन्तु ग्रन्थ के प्रथम अर्धभाग में अधिक हैं । अपभ्रंश के इन अंशों को उनके स्वरूप एवं सन्दर्भो के आधार पर इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है
पद्य-पद्य के अन्तर्गत अपभ्रंश में तीन दोहे ग्रन्थ में उल्खिखित हैं, जिनमें से एक ग्रामनटी के द्वारा एवं एक गुर्जर पथिक के द्वारा गाया गया है । यथा
जो जसु माणसु वल्लहउं तं जइ अण्णु रमेइ । जइ सो जाणइ जीवइ व सो तहु प्राण लएइ ।।-(४७.६) जो णवि विहुरे विभज्जणउ धवलउ कड्ढइ भारू ।
सो गोठेंगण-मंडणउ सेसउ व्व जं सारू ।।-(५९.५) १. लोय-वुतंत-महोयहि-महापुरिस-महणुग्गयामय-णीसंद-विंदु-संदोहं-(७१.४) । २. संघडिय-एक्केक्कम-वण्ण-पय-णाणारूव-विरयणा-सहं सज्जण-वयणं-पिव सुह___संगयं (७१.४,५). ३. कोऊहलेण कत्थइ पर-वयण-वसेण-सक्कय-णिबद्धा -(४.१३) । ४. ब्रह्म विद्या, जुबली संस्करण, भाग १-४ (१९६१) । ५. अणेण-पय-समास-णिवाओवसग्ग-विभत्ति-लिंग-परियप्पणा-कुवियप्प-सय-दुग्गमं
दुज्जण-हिययं पिव विसमं । -कुव० (७१.२)।