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शिक्षा एवं साहित्य
२४३ कामशास्त्र का अध्ययन-उद्द्योतनसूरि चार पुरुषार्थों का औचित्य निरूपण करते समय कहते हैं कि पक्षपात एवं गर्वपूर्वक लोगों ने कामशास्त्र में यह लिख दिया है कि धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थ को पूर्ण करने से ही संसार सधता है। किन्तु यह केवल परिकल्पना ही है।' इससे कामशास्त्र के उद्धरण प्रसिद्ध होने का संकेत मिलता है। एक अन्य प्रसंग राजकूमार तोसल को अपने अध्ययन-काल में पढ़े हुए कामशास्त्र के कन्यासंवरण की यह युक्ति याद रहती है कि रूप-यौवन आदि से सम्पन्न धनिक सैकड़ों साम, भेद आदि उपायों से कन्या को प्रलोभन देते हैं। और यदि वह इस प्रकार वश में न हो तो पराक्रम, छल आदि के द्वारा उससे विवाह कर लेना चाहिए। बाद में कुल के बड़े लोग उसे समर्पित कर ही देते हैं।
खान्यविद्या का अध्ययन-सागरदत्त को जब धनोपार्जन का कोई उपाय नहीं सूझता तो वह विद्यागृह में पढ़ी हुई खान्यविद्या का स्मरण करता हैसुमरियो अहिणव-सिक्खिो खण्णवाप्रो (१०४.२१), जिससे उसे धन मिल जाता है। इसी प्रकार कई अन्य प्रसंगों से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में अध्ययनीय विषयों में धातुवाद का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। इस सम्बन्ध में आर्थिक जीवन वाले अध्याय में जानकारी दी जा चुकी है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि कुवलयमालाकहा में उन सभी विषयों की शिक्षा विद्यागृहों अथवा मठों में छात्रों को दी जाती थी, जो उनके बौद्धिक विकास में सहायक थे तथा जिससे वे अपने जीवन को सुखी तथा सम्पन्न वना सकते थे। किन्तु इतना अवश्य था कि पहले जीवन का लक्ष्य निर्धारित होता था फिर तदनुसार विभिन्न अनुकूल विषयों का अध्ययन किया अथवा कराया जाता था। अध्ययन करने के उपाय
कुव० में अध्ययन करने की विधियों का कहीं अलग से उल्लेख नहीं किया गया है। किन्तु मुनि धर्मनन्दन के शिष्य मुनियों की रात्रिचर्या के प्रसंग में यह बतलाया गया है कि वे अध्ययन में रत रहने के लिए क्या-क्या कार्य करते थे। उन कार्यों से निम्नांकित शिक्षाविधियों के संकेत प्राप्त होते हैं :१. अभ्यास (गुणति), २. पठन-पाठन (पति), ३. प्रश्नोत्तर, ४. शास्त्रार्थ, ५. व्याख्यान, ६. नय एवं ७. स्वाध्याय । इन्हीं से मिलती-जुलती शिक्षा. विधियों का उल्लेख जिनसेन ने अपने आदिपुराण से भी किया है ।३
अक्षरलिपि सीखने की विधि-एक अनपढ़ एवं मानवीय सभ्यता से अलग रहनेवाली बालिका को राजकीर ने अध्ययन कराने के लिए सर्वप्रथम उसे
१. भणियं कामसत्थयारेहि'""परिकप्पणा-मेत्त-चिय, कुव० २.२०, २१. २. भणियं च कामसत्थे कण्णा-संवरणे""बंधुग्गेणं, वही ७८.९, १२. ३. शास्त्री, नेमिचन्द्र, आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० २६६.७०.