________________
शिक्षा एवं साहित्य
२३५ हरिणेगमेषी ने महावीर का गर्भहरण किया था।' अनुवादक ने 'अवस्वापिनी निद्रा' इसका अर्थ किया है। निद्रा की जगह विद्या कहना अधिक संगत है ।
मूलकम्म-प्राथमिक उपचार का ज्ञान। समरादित्यकथा में एक घायल व्यक्ति का औषधिवलय से उपचार करने को 'मूलकम' कहा गया है।'
इस तरह उक्त विवेचन के बाद भी ये कलाएं अभी भी अधिक गवेषणा की अपेक्षा रखती हैं।
उद्योतनसूरि ने ७२ कलाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य विद्याओं का भी कुवलयमालाकहा में विभिन्न प्रसंगों में वर्णन किया है, जो व्यक्ति के बौद्धिकविकास एवं ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित हैं। अश्वविद्या
७२ कलाओं के अन्तर्गत-'तुरयावलक्खणं लक्खणं च हत्थीणं (२२.३) का उल्लेख हुआ है । अतः अश्वविद्या राजकुमारों के शिक्षणीय विषयों में अनिवार्य थी। विद्या-अध्ययन करके राजमहल में वापिस लौटने पर एक दिन राजा दढ़वर्मन् ने अश्वक्रीड़ा के निमित्त कुवलयचन्द्र को अपने पास बुलाया। उसे एक श्रेष्ठ अश्व प्रदान कर उससे अश्वों को जाति, मान, लक्षण एवं अपलक्षण आदि को सुनने की जिज्ञासा की। कुमार ने राजा के प्रश्न के उत्तर में अश्वविद्या से सम्बन्धित सूक्ष्म एवं विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की। उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
अश्वों के नाम-अश्वक्रीडा के समय राजपुत्रों को जो अश्व प्रदान किये गये थे उनके नाम इस प्रकार हैं-गरुडवाहन, राजहंस, राजशुक, शस, भंगुर, हूण, चंचल, चपल, पवनवेग पवनावर्त एवं उदधिकल्लोल (२३.९,१२)। ये सब नाम शस एवं हूण को छोड़कर भारतीय हैं किन्तु अश्वों के नामों की अन्यत्र जो सूचियाँ मिलती हैं, उनमें अनेक नाम अरबी और फारसी भाषा से सम्बन्ध रखते हैं। उपर्युक्त नाम साहित्यिक हैं जो अश्व की द्रुतगति तथा जातीय श्रेष्ठता पर आधारित हैं।
कुवलयचन्द्र के अश्व का वर्णन-अश्वक्रीड़ा के लिए कुबलयचन्द्र को जो उदधिकल्लोल नामक अश्व दिया गया था, उसके खुर स्वर्ण से मढ़े थे और रत्नजटित पलेंचा उस पर कसा हुआ था । उसका कवि ने श्लेषात्मक उपमा के द्वारा अत्यन्त रमणीय वर्णन किया है । वह अश्व वायु जैसा था। गमन करने
१. कल्पसूत्र २, २७, पृ० ४४ अ । ज्ञातृधर्मकथा १६, पृ० १८६. २. ह.-स० क०, छठा भव. ३. साँडेसरा-वर्णकसमुच्चय, भाग १, पृ० १९१; महाभारत, द्रोणपर्व आदि । ४. पी० के० गुणे-'भारतीय अश्वागम'-वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ, पृ० ४५५. ५. कणयमय-घडिय-खलणं रयणविणिम्मिविय-चारू पल्लाणं (२३-१२).