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अलंकार एवं प्रसाधन
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आदि के द्वारा शृंगार किये होने पर भी धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष किसी को प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार काम से अन्य पुरुषार्थ नहीं सधते । "
इस प्रसंग में 'अट्ठट्ठ' शब्द विचारणीय है । डा० ए० एन० उपाध्ये ने इसे चाँदी के हार का एक प्रकार कहा है । गुजराती अनुवादक इसका अर्थ आठ सेर (लरों) वाला कंठाभूषण करते हैं । किन्तु यह कुछ अस्वाभाविक लगता है । प्राचीन एवं तत्कालीन साहित्य के उल्लेखों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उस समय आठ सेर (लरों) का कोई आभूषण प्रचलित नहीं था । श्रादिपुराण ( १५.१९३ ) में मणि तथा स्वर्ण द्वारा तैयार कंठाभरण का उल्लेख है, जिसे पुरुष पहिनते थे । यशस्तिलकचम्पू के उल्लेख के अनुसार अनेक गुरियों को पिरोकर कण्ठिका बनायी जाती थी । अतः उक्त सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि सम्भवतः कण्ठाभरण आठ गुरियों से बना रहा होगा, तथा चाँदी के वजाय 'स्वर्ण के रहे होंगे। क्योंकि यहाँ रण्डीपुत्र की आर्थिक सम्पन्नता प्रदर्शित करने का उद्देश्य है, फिर भी उसका अपना कुछ नहीं है । आजकल गले में पहिनने के लिये चाँदी एवं सोने के सिक्के रेशमी धागे में पिरो कर एक कण्ठाभूषण बनाया जाता है, जिसे हिवाल कहते हैं । इसमें प्रायः आठ सिक्के लगाये जाते हैं । हो सकता है, प्राचीन समय में भी इसे 'अट्ठट्ठकंठाभरण' कहा जाता रहा हो ।
कटक - कटक चूड़ी के समान पहिने जाते थे तथा ढीले रहते । गमन करने में इनकी आवाज होती थी ( १४.२९ ) । नर-नारी दोनों ही समान रूप से इन्हें धारण करते थे । माणिक्य से निर्मित कटक दाहिने हाथ में पहिना जाता था (३०.३० ) । स्वर्ण के कटक अधिक मजबूत माने जाते थे । रत्न के कटक रक्तवर्ण के होते थे (१८७.२८) ।
कंठिकाभरण - यह पुरुषों का आभूषण है । स्वर्ण और मणियों द्वारा यह तैयार किया जाता था । कण्ठाभरण को प्रमुख विशेषता अपने आकार-प्रकार से पूरे कण्ठ को आच्छादित करने की है । कुव० में मरकतमणि से निर्मित कंठिका का उल्लेख है, जो कुवलयचन्द्र के कंठ को शोभित करती थी । ( १८२.२४) । आगे चलकर तीन लर वालो कंठिका भी बनने लगी थी, जिसे त्रिशर कंठिका कहा जाता था ।"
कर्णफूल - कर्णफूल का दो बार उल्लेख हुआ है ( ५७.१६, १६०.१० ), जिससे ज्ञात होता है कि यह कान का आभूषण था, जो फूलों से वनता था तथा १. दुग्गय - रंडेक्कल - पुत्तओ विव अटूट्ठट्ठ-कंठयाभरण - वलय-सिंगार-भाव-रस-रसिणो ण तस्स धम्मो, ण अत्थो, ण कम्मो ण जसा ण मोक्खोति, २.२२.
२.
यश०, पृ० ६६२.
३. शा० आ० भा०, पृ० २१९.
४. आदिपुराण, १५.१९३.
५. यशस्तिलकचम्पू, पृ० ४६२.