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________________ वस्त्रों के प्रकार १५३ तभी जैन मुनियों को इसका प्रयोग करना वर्जित था । " डा० मोतीचन्द्र के अनुसार यह बहुत ही महीन मलमल, जिसके लिये यह देश प्रसिद्ध था, रही होगी । उद्योतन द्वारा प्रयुक्त फालिक के उल्लेख से लगता है, उसका प्राचीन अर्थ विस्तृत हो गया होगा । यहाँ फालिक स्पष्ट रूप से गमछा जैसा कोई वस्त्र रहा होगा। क्योंकि सागरदत्त उसके छोर में अंजलीभर रुपये बाँधता है । " आगे एक कथा में ६ लकड़हारे फालिक में अपना भोजन का पात्र बाँधकर ले जाते हैं । उस समय किसी थान से फाड़ने के कारण इसे फालिक कहा जाता रहा होगा । आजकल भी इस प्रकार के कंधे पर डालनेवाले कपड़े को देसी भाषा में 'फट्टा' कहते हैं, जो फालिक का अपभ्रंश है । गुजराती में इसे 'फालड' कहते हैं । रल्लक - उद्योतन ने रल्लक का दो बार उल्लेख किया है। रानी प्रियंगुश्यामा के पुत्र उत्पन्न होने पर परिचारिकों को रल्लक और कम्बल लुटाये गयेउज्झज्जंति रल्लय- कंबल ए ( १८.२६ ) । तथा शिशिरऋतु में कंबल-घृत, तेल, रल्लक और अग्नि का ही लोगों को सहारा होता है ।" इन दोनों प्रसंगों से ज्ञात होता है कि रल्लक कंबल का जोड़ा जैसा था तथा ठंड के दिनों में इसका उपयोग होता था । रल्लिका या रल्लक को अमरकोषकार ने एक प्रकार का कम्बल कहा है ( २.६.११६ ) । जिस समय युवांग च्वांग भारत आया उस समय भारतवर्ष में इस वस्त्र का खूब प्रचार था । उसने अपने यात्रा विवरण में होलाली अर्थात् रल्लक का उल्लेख किया है। उसने लिखा है कि यह वस्त्र किसी जंगली जानवर के ऊन से बनता था । यह ऊन आसानी से कत सकता था तथा इससे बने वस्त्रों का काफी मूल्य होता था । रल्लक एक प्रकार का मृग या जंगली भेड़ होती थी, जिसके ऊन से यह वस्त्र बनता था । सोमदेव ने लिखा है कि रल्लकों के रोओं से कम्बल बनाये जाते थे इसलिये इनको रल्लक कहा जाता था और जिस तरह आजकल असली पसमीना जंगली भेड़ों के कठिनता से प्राप्त ऊन से तैयार किया जाता है और इसी कारण महंगा होता है, इसी तरह रल्लक भी महंगा वस्त्र था । अतएव धनी लोगों के उपयोग में आता था। उद्योतन के सन्दर्भ से भी १. २. ३. ४. ५. ६. ज० - जै० आ० स०, पृ० २०६ एवं २०७. मो०- प्रा० भा० वे०, पृ० १५०. णिबद्ध ं च णेण कंठ-कप्पडे तं पुट्टलयं कुव० १०५.२. भायण - कपडे य फालियए । – कुव० २४५.१७. अग्घंति जम्मिकाले कंबल - घय-तेल्ल - रल्लयग्गीओ, १६९.१३. वाटरस, युवांगच्वांग्स ट्रावल्स इन इंडिया, भाग १, पृ० १४८, लन्दन १९०४, मो० - प्रा० भा० वे०, पृ० १५३ पर उद्धृत ।
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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