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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन अग्रवाल ने काफी प्रकाश डाला है।' सोमदेव द्वारा प्रयुक्त नेत्रवस्त्रों का अध्ययन डा० गोकुलचन्द्र जैन ने किया है। उन सबकी पुनरावृत्ति न करते हुए उद्योतन द्वारा प्रयुक्त नेत्र-युगल के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक है ।
विपणिमार्ग में फैले हुए ताम्र, कृष्ण एवं श्वेत विस्तृत नेत्रयुगल के उल्लेख से ज्ञात होता है कि नेत्र न केवल सफेद अपितु अन्य रंगों में भी बनने लगा था। बाण ने जो नेत्रवस्त्रों के आच्छादन से हजार-हजार इन्द्र-धनुषों जैसी कान्ति निकलने की उपमा दी है, वह उद्योतन के इस उल्लेख से साकार हो जाती है। तथा डा० अग्रवाल ने नेत्र और पिंगा में नेत्र को श्वेत तथा पिंगा को रंगीन कह कर जो भेद बतलाया है, उसके लिए अब दूसरा आधार खोजना पड़ेगा। क्योंकि नेत्र और पिंगा दोनों रेशमी वस्त्र थे तथा रंगीन होते थे ।
उद्योतन ने सम्भवतः नेत्रयुगल शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख किया है। इसके पूर्व उल्लेखों में कहीं भी नेत्रयुगल शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ। यद्यपि हर्ष को नेत्रसूत्र की पट्टी बाँधे हुए एवं एक अधोवस्त्र पहने हुए बतलाया गया है। यह अधोवस्त्र नेत्र का ही था, निश्चियपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अतः यह प्रतीत होता है कि आठवीं सदी में दुकुल की तरह नेत्र के जोड़े पहिनने का प्रचलन हो गया था।
'फालिज्जंति कोमले णेत्त-पट्टए' से ज्ञात होता है कि पुत्र-जन्म की खुशी में कोमल नेत्रवस्त्र की पट्टियाँ (चीर) फाड़-फाड़ कर नौकर-चाकरों में वांटी जाने लगी थीं। नौकरों को वस्त्र की पट्टी प्रदान करना उसके काम से खुश होने का सूचक था। वाण ने 'पट्टच्चरकर्पट' शब्द द्वारा इस प्रथा का उल्लेख किया है। उद्द्योतन के समय में नेत्रवस्त्र की चीरिका प्राप्त करना परिचारिकों के लिए विशेष सम्मान का सूचक रहा होगा।
इस प्रसंग में विशेष महत्त्वपूर्ण वात यह है कि उद्द्योतन ने चीन से भारत में आने वाले रेशमी वस्त्रों में भी नेत्रपट का सर्वप्रथम उल्लेख किया है। इसके पूर्व चीन से आनेवाले वस्त्र चीन, चीनांशुक, चीनपट्ट, चीनांसि आदि थे। नेत्रपट चूंकि भारत में प्राचीन समय से प्रचलित एवं अपनी कोमलता आदि के लिए प्रसिद्ध वस्त्र था, अतः हो सकता है कि उक्त व्यापारी चीन से कोई ऐसो विशिष्ट सिल्क लाया हो, जिसका न जानने के कारण सादृश्य के आधार पर उसे उसने
१. अ०-६० अ०, पृ० २३, ७८, १४९ द्रष्टव्य । २. जै०-यश० सां०, पृ० १२१-२२, द्रष्टव्य । ३. स्फुरिद्भिरिन्द्रायुधसहस्ररिव संछादितम्, हर्षचरित, पृ० १४३. ४. अ०-ह० अ०, पृ० ७८. ५. विमलपयोधौतेन नेत्रसूत्रनिवेशशोभिनाधरवाससा, हर्षचरित, पृ० ७२. ६. वही, पृ० २१३. ७. मो०-प्रा० भा० वे० ,पृ० १४८, १४९, ४९, १०१, ५६, ५९, ६० आदि ।