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वस्त्रों के प्रकार पड़ने पर कंठ में भी लपेट लेते हैं, गुलबन्द को तरह । कंट में लपेटने के कारण इसे कंठ-कप्पड कहा जाता रहा होगा ।
कंथा-उद्योतन ने कंथा का पांच बार उल्लेख किया है। मनुष्य-जन्म के दुःखों का वर्णन करते हुए धर्मनन्दनमुनि कहते हैं कि जैसे किसी गरीब घर की गहिणी शिशिरकाल में जीर्ण कंथा को ओढ़कर अपनी ठंड काटती है, उसी प्रकार इसमें भी अनेक बार तण के विछौनों पर ही रात काट दी है।' स्थाणु मायादित्य के घावों पर कंथा के चिथड़े बाँधता है२ तथा भवचक्र के पटचित्र में एक वृद्ध गरीब को चीवर पहिने हुए एवं कंथा ओढ़े हुए चित्रित किया गया था। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि कंथा गरीबों के उपयोग में आने वाला वस्त्र था। शिशिरकाल में कंथा की उपयोगिता का उल्लेख सोमदेव ने भी किया है।
इस कंथा को आजकल देशी भाषा में कथरी कहा जाता है। बुन्देलखण्ड में अनेक पुराने जीर्ण-शीर्ण टुकड़ों को एक साथ सिलकर बनाये गये कपड़े को कथरी कहते हैं गरीब परिवार, जो ठंड से बचाव के लिए गर्म या रुई भरे हुये कपड़े नहीं खरीद सकते वे कंथाएँ बना लेते हैं, जो ओढ़ने-बिछाने के काम आती हैं। मोटी होने के कारण इन कंथाओं में जूं भी पड़ जाती है। जू के कारण कंथा न छोड़ना, सोमदेव के समय एक मुहावरा बन गया था। इससे ज्ञात होता है कि आठवीं से १०वीं सदी तक कंथा गरीब परिवारों का अनिवार्य वस्त्र बन गया था। शिशिरकाल में श्रीमन्त लोग भले कालागरु, कंकुम की सुगंधयुक्त शयनासनों का भोग करते रहे हों, किन्तु साधुनों एवं गरीब स्त्रियों की तो कंथा ही एक मात्र जीवन था । वर्तमान में भी कंथा या कथरी का उपयोग होता है।
कंबल-उद्द्योतन ने शिशिरकाल में कंबल का उपयोग अधिक होता था, इसका संकेत दिया है। इससे ज्ञात होता है कि कंबल ऊनी-वस्त्र था। अथर्ववेद, महावग्ग, जातकों में कंबल को ऊनी वस्त्र ही कहा गया है। कंबोज १. बहुली व परिगयाए सिसिरे जर-कंथ-उत्थय-तणूए ।
दुग्गय-धरिणीए मए बहुसो तण-सत्थरे सुइयं ॥ कुव० ४१.२५, १६९.३०. २. बद्धाइं च वण-मुहाई कथा-कप्पडेहिं, वही० ६३.७. ३. लिहिओ रोरो थेरो य सत्थर-णिवण्णो । चीवर-कंथोत्थइओ, वही, १८८.१८. ४. शिथिलयति दुर्विधकुटुम्बेसु जरत्कंथा पटच्चराणि । -यश० पूर्व०, पृ० ५७. ५. जै० - यश० सां०, पृ० १३८. ६. जर-मंथर-कथा-मेत्त-देहया जुण्ण-घम्मिया, खल-तिल-कंथा जीवणाओ दुग्गय
घरिणीओ।- कुव० १६९.३०.
अग्घंति जम्मि काले कंबल-घय-तेल्ल रल्लयग्गीओ।-कूव०१६९.१३. ८. अथर्ववेद, १४.२, ६६.६७.
महावग्ग, ८.३, १. १०. मद्यवणिजजातक, भाग ४, पृ० ३५२.
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