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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन पोषण का उत्तरदायित्व, पति-पत्नी के सम्बन्धों का निर्वाह आदि अनेक पारिवारिक जीवन के प्रसंगों का वर्णन किया है। इससे तत्कालीन सामाजिक स्थिति में परिवार के महत्त्व पर भी प्रकाश पड़ता है तथा ज्ञात होता है कि संयुक्तपरिवार प्रथा का इस युग में विशेष प्रचार था।
प्राचीन समय से ही परिवार एक प्रमुख सामाजिक संस्था रही है। इसका कार्य स्त्री-पुरुष के यौन सम्बन्धों को विहित और नियन्त्रित करना ही नहीं है, अपितु जीवन को सहयोग और सहकारिता के आधार पर सुखी एवं समृद्ध बनाने का प्रयत्न करना भी है। सांसारिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्यों की पूर्ति में परिवार का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।' उद्द्योतनसूरि ने कथा के प्रमुख पात्र पारिवारिक-जीवन से ही चुने हैं, जो प्रथम सांसारिक वस्तुस्थिति का अनुभव कर क्रमशः धार्मिक-लक्ष्य की पूर्ति हेतु गतिशील होते हैं । उद्योतन द्वारा उल्लिखित पारिवारिक-जीवन के प्रमुख घटकों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है :
प्रमुख-सदस्य-कुव० में चंडसोम, मानभट एवं गरुड़पक्षी की कथाओं के प्रसंग में संयुक्त परिवार का स्वरूप चित्रित हुआ है। चंडसोम अपने माता-पिता, पत्नी, भाई एवं बहिन के साथ रहता था (४६.१५, २७) । मानभट अपने मातापिता एवं पत्नी का जीवनाधार था (५४.१८, ३०)। गरुड़ पक्षी के कथानक द्वारा उद्द्योतनसूरि ने उसके परिवार के निम्न सदस्यों का उल्लेख किया है, जिनसे वह दीक्षा लेने के लिए अनुमति चाहता है,-पिता, माता, ज्येष्ठभ्राता, अनुज, ज्येष्टबहिन, छोटी वहिन, पत्नी, सन्तान, ससुर एवं सास (२६०.२५, २६७.२२)। इससे ज्ञात होता है कि उस समय सुरक्षा की दृष्टि से संयुक्तपरिवार में अधिक से अधिक सदस्य रहते थे एवं उनमें परस्पर घनिष्ठता होती थी। प्रत्येक सदस्य के सम्बन्ध में निम्न तथ्य प्राप्त होते हैं :
पुत्र-परिवार में पुत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान था। राजा दृढ़वर्मन् एवं रानी प्रियंगुश्यामा पुत्र प्राप्ति के लिए हर सम्भव प्रयत्न करते हैं। राजा अपनी बलि देने को भी तैयार था। क्योंकि लोक में यह मान्यता थी कि पुत्र के बिना गति नहीं सुधरती । पुरुषार्थ पूरे नहीं होते-विणा पुत्तेण ण संपडंति पुरिसाणं (१३. २२)। पुत्र के बिना समृद्धशाली पुरुष पुष्पों से युक्त फलरहित वृक्ष के समान माना जाता था (१३.२५) । पुत्र की इसी महत्ता के कारण पुत्र-लाभ प्रसन्नता का कारण था (२६०.१९) । पुत्र की अचानक मृत्यु पर परिवार के अन्य सदस्य स्वयं को असहाय अनुभव कर अनुमरण कर लेते थे (५४.२६, २७) । पुत्र पिता १. द्रष्टव्य-लेखक का 'जैन संस्कृति और परिवार-व्यवस्था' नामक लेख,
'श्रमण', १९६५. २. कच्चाइणीए पुरओ सीसेण बलि पि दाऊण-१३.६. ३. जेण भणियं किर रिसीहिं लोय-सत्थेसु–'अउत्तस्स गई णत्थि'-१३.२१.