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परिच्छेद दो सामाजिक संस्थाएँ
कुवलयमाला कहा में प्रायः आभिजात्य वर्ग के समाज का चित्रण हुआ है । उद्योतनसूरि ने उसके अनुरूप ही अनेक ऐसी सामाजिक संस्थाओं का उल्लेख किया है, जिनसे समाज की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी, मनोरंजन होता था तथा समाजगठन में सहयोग मिलता था। इन सामाजिक संस्थाओं को उपयोग की दृष्टि से इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है :
आधारभूत संस्थाएँ
जाति, परिवार एवं विवाह, भारतीय समाज की आधारभूत संस्थाएँ हैं । जाति के सम्बन्ध में उद्योतनसूरि द्वारा उल्लिखित सामग्री का विवेचन ऊपर किया जा चुका है । समाज के लिए परिवार एवं विवाह का महत्त्व हमेशा सर्वोपरि रहा है ।' समय-समय पर इन संस्थाओं के स्वरूप एवं व्यवहार में परिवर्तन आता रहा है । उद्योतनसूरि के समय की इन संस्थानों में काफी लचीलापन रहा है । क्योंकि यह युग भारतीय समाज में विदेशी जातियों के मिश्रण का युग था, जो इन संस्थाओं के लचीलेपन के कारण ही सम्भव हो सका है ।
पारिवारिक जीवन
कुव० के कथानक एवं अन्य वर्णनों के आधार पर तत्कालीन संयुक्तपरिवार का चित्र उपस्थित होता है । उद्योतनसूरि ने संयुक्त परिवार के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन, पुत्र का परिवार में महत्त्व, परिवार के भरण
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विशेष के लिए द्रष्टव्य- डिक्शनरी आफ सोसिओलाजी, फिलासोफिकल लायब्रेरी न्यूयार्क सिटी, पृ० ३२७.