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वर्ण एवं जातियाँ जीवी एवं योद्धाओं के संघों के साथ सुराष्ट्रों को गिना है। सुराष्ट्र काम्भोज एवं क्षत्रिय संघों के अनुरूप थे।'
गुर्जर-उद्द्योतनसूरि ने गुर्जरपथिक (गुज्जर-पहियएण, ५९.४), गुर्जर बनिये (१५३.४) तथा गुर्जरदेश (२८२.११) का उल्लेख किया है। गुजरात प्रदेश में रहनेवाले व्यक्तियों को 'गुर्जर' कहा जाने लगा था, इस तथ्य का सर्वप्रथम उल्लेख उद्द्योतनसूरि ने ही किया है। प्रतिहार राजाओं के साथ 'गुर्जर' शब्द का प्रयोग किस कारण हुआ है इस विषय पर डा० दशरथ शर्मा ने विशद विवेचन प्रस्तुत किया है। गुर्जर' एक जाति के रूप में भी प्रचलित शब्द था । वर्तमान में भी वह इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'गुर्जर' शबद की उत्पत्ति के सम्बन्ध में डा० बुद्धप्रकाश का कथन हैं कि सीथियन लोगों की एक शाखा का नाम -सुन (Wu-sun) था। ईसा की चौथी शताब्दी में वु-सुन उच्चारण गुसुर (Gusur) के रूप में होने लगा और गुसुर से फिर 'गूर्जर' शब्द प्रयुक्त होने लगा। अरब सन्दर्भो में इसे जुर्ज (Jurz) कहा गया है। छठी सदी में गुर्जरों का भारत में विशेष प्रसार हुआ है। उसके बाद ही उद्द्योतनसूरि ने जाति एवं प्रदेश के अर्थ में गुर्जर शब्द का प्रयोग किया है।
' अन्य प्रादेशिक जातियों के नाम विभिन्न प्रदेशों में निवास करने के कारण तदनुरूप प्रचलित प्रतीत होते हैं, यथा- सिन्ध के सैन्धव, मालव के मालविय, महाराष्ट्र के मरहट्ट, कर्नाटक के कर्णाट आदि । विदेशी जातियां
कुव० में कुछ ऐसी जातियों के भी उल्लेख हैं जिनके नाम विदेशी हैं, किन्तु वे भारतीय समाज में सम्मिलित होती जा रही थीं। वे हैं :
शक (४०.२३), यवन (२.९, ४०.२३), बर्बर (२.६, ४०.२३, १४.२१, १५३.१२), हूण (४०.२४), रोमस (४०.२४), पारस (२.९, ४०.२४), खस
Kautilya enumerates 'Suraştra' among the guilds of warriors specializing in the profession of Arms. Analogous to Surāştra were the Kambhoja and Ksatriya guilds.
-B. PSMP. P. 198. २. A Cultural not-By Dr.v.s. Agrawal, Kuv. Int. P. 117. ३. S. RTA. PP. 108.119.
An important branch of the Seythian peoples were the Wusun... ... ... In the fourth century A. D. Wu-sun was pronounced as Gusur. (P.C. Bagchi-India and Central Asia P. 138). From this word the name of the Güjars is derived.
-B. PSMP. P. 250. द्रष्ठव्य-डा० बुद्धप्रकाश, एशिया के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास की रूपरेखा, लखनऊ, १९७१, पृ० १४४.