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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन कर्मकार जातियाँ
उद्द्योतनसूरि ने कर्मकार-जातियों में कुम्हार (४८.२७), लुहार(४८.२७), अहीर (७७.८), चारण (४६.९), काय (४०.२५), इभ्य (७.२७), कप्पणिया (४०.२४), मागध (१५३) आदि का उल्लेख किया है । सुवर्ण देवी प्रसूति के बाद एक गोष्ठ में जाकर किसी अाहीरी के घर में शरण लेती है, जहाँ वह अहीरिन उसको पुत्री सदृश मानकर सेवा करती है (७७.८) । आभीर एक ऐसी जाति का नाम है, जिसका मूल पेशा गो-पालन था। महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार द्वारका से कुरुक्षेत्र जाते हुए अर्जुन पर इसी आभीर जाति के लोगों ने आक्रमण किया था। आभीर जाति के लोग पहले यायावर थे। बाद में वे पंजाब की पूर्वी सीमा से लेकर मथुरा के समीप तक, दक्षिण में सौराष्ट्र (काठियावाड़) तथा राजपूताना के पश्चिमी प्रदेश पर बस गये थे। ईसा की तृतीय शताब्दी तक आभीरों ने अपना प्रमुख स्थान बना लिया था।' कुव० के इस प्रसंग से ज्ञात होता है कि कोशल और पाटलिपुत्र के मध्य में कहीं उनका निवास स्थान था, जिसे उद्द्योतन ने 'गोष्ठ' कहा है। उसमें रहनेवाली आहीरी आभीर जाति की ही रही होगी। आजकल इस जाति के वंशजों को 'अहीर' कहा जाता है, जिनका प्रमुख व्यवसाय पशु-पालन है ।
'चारण' गांव-गांव में जाकर अपनी जीविका कमानेवाली जाति थी। सम्भवतः इनका कार्य प्रशस्तियाँ आदि गाना था। राजस्थान में आज भी चारण जाति के लोग विद्यमान हैं। 'काय' को उद्द्योतन ने अनार्य कहा है। यदि इसका सम्बन्ध 'कायस्थ' से है तो वेदव्यास ने भी कायस्थों को शूद्रों में गिना है। और आठवीं सदी में कायस्थ शब्द कर्मचारी के लिए प्रयुक्त होता था। 'इभ्य' वणिक् जाति को कहा जाता था। उद्द्योतन ने इभ्यकुमारी का उल्लेख किया है, जो वणिकों की सम्पन्नता सूचित करती है (७.२७) । 'प्रज्ञापना' (१.६७, ७१) में आर्यों की जाति के अन्तर्गत इभ्य जातियाँ गिनायी गयी हैं। 'कप्पणिया' सम्भवतः कपड़े के व्यापारी को कहा गया है, जिससे आजकल कापणिया प्रचलित है। जैनागमों में इसे कप्पासिय, कपास का व्यापारी, कहा गया है । 'मागध' का उल्लेख उद्द्योतन ने देसी बनियों के साथ किया है (१५२.२६)। किन्तु आठवीं
१. भ०-वै० शै० भ०, पृ० ४२-४३. २. जाव दिलै एक्कम्मि पएसे कं पि गोटुं । तत्थ समस्सइया एक्कीए घरं आहीरीए
कुव० ७७-८. ३. काणिककिरातकायस्थमालाकारकुटुम्बिनः ।।
एते चान्ये च बहवः शूद्रा भिन्नाः स्वकर्मभिः ॥-वेदव्यास-स्मृति, १.१० ४. उ०-५० भा० इ०, पृ० ३२१. ५. ज०-जै० पा० स०, पृ० २२९. ६. वही०, पृ० २२२.