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वर्ण एवं जातियाँ
१११ पक्कण-कुल-उद्योतनसूरि ने पक्कणकुल का उल्लेख अधमकुल एवं चाण्डालकुल के अर्थ में किया है।' रत्नपुरी में चाण्डालों के घरों पर भी पताका फहराती थीं। किन्तु यह साहित्यिक अतिशयोक्ति होनी चाहिए, क्योंकि अन्यत्र उद्द्योतन ने चाण्डालों को म्लेच्छ सदृश तथा सुख एवं अर्थहीन कहा है (४०.२९) । 'अन्तकृद्दशा' (४, पृ० २२) तथा 'मनुस्मृति' (१०-५०) आदि से ज्ञात होता है कि चाण्डाल मुर्दे ढोते थे, तथा शहर के बाहर खुले आकाश में रहते थे। किन्तु अन्य कई ऐसे भी साक्ष्य मिलते हैं कि आठवीं सदी एवं उसके बाद में चाण्डालों की स्थिति सुधर रही थी।
भेरिय-भेरी वाद्य को बजानेवालों की भी एक अलग जाति थी, जिनके घरों में निरन्तर भेरी बजते रहने के कारण उसके शब्द से उनके बच्चे-भयभीत नहीं होते थे । सम्भवतः ये कबूतर भी पालते थे।"
शौकरिक-उद्द्योतन ने शौकरिकों को अनार्य एवं म्लेच्छ कहा है। 'व्यवहारभाष्य' (३.९४) में इन्हें कर्मगुप्सित जाति का कहा है। सम्भवतः ये सुअर पालने के कारण अन्त्यज जाति में सम्मिलित रहे होंगें। मध्यप्रदेश में सुअर पालने का कार्य मेहतर, वसोर एवं कुम्हार जाति के लोग करते हैं ।
वोक्कस-कुव० के अनुसार वोक्कस अनार्य जाति के थे। धर्म का एक अक्षर भी उन्होंने नहीं सुना (४०.२५) था। 'सुत्तनिपात' (१.७, ३.९) तथा 'अंगुत्तरनिपात' (२.४ पृ० ८९) में इन्हें पुक्कुस कहा गया है तथा ये नीच कुल के थे। 'आचारांग-नियुक्ति' में (२०.२७) निषाद और अम्बष्ठ के संयोग से उत्पन्न सन्तान को बुक्कस कहा गया है।"
यद्यपि आठवीं सदी में अन्त्यज जाति में सम्मिलित लोगों की स्थिति अधिक अच्छी प्रतीत नहीं होती। किन्तु इसके बाद उनमें भी सुधार होना प्रारम्भ हो गया था। जिनेश्वर के 'कथाकोशप्रकरण' (पृ० ११५) एवं अलबरूनी के विवरण के अनुसार अन्त्यजों में से कुछ जातियों की 'श्रेणियां' भी थीं, जो उनकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को उन्नत करने में सहयोगी थीं।
१. सुकुलम्मि एस जाओ आसि अहं चेय पक्कण-कुलम्मि, ८१.१०. २. पक्कण-कलई पि पवण-पहल्लमाण-कोडि-पडाया-णिहासई, १४०.२. 8. But there is ample evidence to show that they were gradually
becoming immune from their disabilities as a result of the crusade against caste, Launched in India about the eighth century, as we shall see later on.
-B. AIHC. PP. 255. ४. अणुदियहम्मि सुणेता अवरे गेण्हंति णो भयं घिठा।
भेरी-कुलीय पारावय व्व भेरीए सद्देणं ।। ३८.२९. ५. ज०-जे० भा० स०, पृ० २२३ (नोटस्) । ६. अलबरूनी इण्डिया १, पृ० १०१. ७. श०-रा० ए०, पृ० ४३१.