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________________ कुवलयमालाकंहा का सांस्कृतिक अध्ययन नंदीश्वरद्वीप (४३.११), क्षीरोदधि (७.४), अवरोवधि (५२.२७), दाहिणाभयराहर (१३४.६) आदि जैन साहित्य में काफी उल्लिखित हैं । भारतवर्ष के भूगोल को सुनिश्चित करने में इनका महत्त्वपूर्ण योग है।' तारद्वीप (६६.१८, ९४.१)-लोभदेव का जहाज रत्नद्वीप से चलकर जब सोपारक के लिए वापिस लौट रहा था तो बीच समुद्र में राक्षस द्वारा तूफान उठा देने से वह भग्न हो गया। लोभदेव किसी प्रकार उस महा भयंकर समुद्र पर तैरता हुआ सात दिन-रात में तारद्वीप नामक द्वीप में जा लगा। समुद्री किनारे की शीतल पवन से स्वस्थ हुआ। तभी वहाँ रहने वाले समुद्रचारी अग्नियक नाम के महाविट के पुरुषों ने उसे पकड़ लिया और अपने स्थान पर ले गये । वहाँ उन्होंने पहले लोभदेव को खूब खिलाया-पिलाया एवं बाद में उसके शरीर से रुधिर निकाल लिया, जिससे वे सोना बनाने का काम करते थे। इस प्रकार हर छह माह में वे उसका रुधिर-मांस निकालते और औषधियों से उसे स्वस्थ कर देते थे । लोभदेव वहाँ बारहवर्ष तक इस प्रकार का दुःख सहता रहा। अन्त में एक दिन भरुण्ड पक्षी उसे उठाकर आकाश में ले उड़ा। जब वह समुद्र के ऊपर से जा रहा था तो दूसरे भरुण्ड पक्षी ने उस पर हमला किया। उनके युद्ध से लोभदेव समुद्र में गिर पड़ा। समुद्र के जल से उसके घाव ठीक हो गये तो वह समुद्र के वेलावन में गया और वहाँ एक वटवृक्ष के नीचे सो गया। उठने पर उसने पैंशाचों की बातचीत पैशाची भाषा में सुनी और अपना प्रायश्चित करने के लिए कोसाम्बी नगरी में जा पहुँचा (अनु० १३७१३९) । इस विस्तृत विवरण से ज्ञात होता है कि (१) तारद्वीप, रत्नद्वीप और सुपारा के जलमार्ग के बीच में पड़ता था (२) वहाँ कृत्रिम स्वर्ण बनाने वाले रहते थे, (३) भरुण्ड पक्षी पाये जाते थे तथा (४) समुद्र के किनारे पैशाचों का निवास स्थान था। इन सूचनाओं के आधार पर तारद्वीप की पहचान की जा सकती है। तारद्वीप नाम का कोई प्राचीन द्वीप नहीं है। इसका कोई दूसरा नाम प्रचलित रहा होगा। उक्त विवरण में जो मांस-रुधिर से कृत्रिम सोने बनाने का उल्लेख है, इस प्रक्रिया का प्राचीन साहित्य में पर्याप्त उल्लेख हुआ है। भगवती आराधना (गाथा ५६७) की टीका करते हुए आशाधर ने कहा है कि चर्मरंगविसय (समरकन्द) के म्लेच्छ आदमी का खून निकालकर उसके कीड़ों से कंबल रंगते थे। हरिषेण ने भी एक कथा के वर्णन में लिखा है कि एक पारसी ने एक १. जाम-कुव० क० स्ट०, पृ० १०६-१०९. २. सत्तहिं राइदिएहिं तारद्दीवं णाम दीवं तत्थ लग्गो-कुव० ६९.१८. ३. एवं च छम्मासे छम्मासे उक्कत्तिय मासखंडो वियलिय-रुहिरो अट्ठिसेसो __महादुक्ख-समुद्दमज्झगओ बारससंवच्छराइ वसिओ-वही०, अनु० १३५. ४. भगवती आराधना, प्रस्तावना, पृ० ८८.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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