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ग्राम, वन एवं पर्वत यह देवअटवी भरुकच्छ नगर के आस-पास रही होगी क्योंकि इस अटवी का पल्लीपति वहाँ के राजकीर को लेकर भृगुकच्छ के राजा को भेंट देने गया था (१२३.१६)। महाभारत में देवसम नामक पर्वत का उल्लेख है, जो दक्षिण में स्थित था।' सम्भव है देवअटवी और देवसमपर्वत में कोई सम्बन्ध रहा हो।
महाविन्ध्याटवी (२७.२९)-कुवलयचन्द्र अश्वद्वारा उड़ा लिये जाने पर जब मुनि के आदेशानुसार दक्षिण दिशा की ओर चला तो अनेक पर्वत, वृक्ष, वल्ली, लता, गुल्म आदि से युक्त महाविन्ध्याटवी में पहुँच गया ।२ वह अटवी पाण्डव सैन्य सदृश अर्जुन नाम के अति भयंकर वृक्षों से अलंकृत थी (अर्जुन और भोम जैसे योद्धाओं से युक्त थी), रणभूमि सदृश सैकड़ों सरोवर एवं पक्षी-समूह से युक्त थी (बाण एवं तलवारों से युक्त), निशाचरी सदृश शृगालों के भयंकर शब्दोंवाली एवं काले कोदव-सी मलिन थी (भयंकर अशुभ शब्दवाली एवं मेघन सदश काले अंग वाली), लक्ष्मी सदृश अनेक हाथियों से युक्त थी जो,दिव्य पद्मों का भोजन करते थे (महागजेन्द्र युक्त एवं कमलासन पर स्थित), जिनेश्वर की आज्ञा सदश महावतों के संचार एवं सैकड़ों शृगालों से सेवित थी (महाव्रतों के सेवन में कठिनाई होने पर भी सैकड़ों श्रावकों द्वारा सेवित), महाराजा के आस्थानमंडपसदश अनेक राजशुकों से युक्त तथा सपाट मैदान वाली थी (राजपुत्रों तथा सामन्तों से युक्त), महानगरी सदृश ऊँचे शाल वृक्षों से शोभित एवं साकार पर्वतों द्वारा दुलंध्य थी (ऊँचे किलों के अलंकृत सर्पाकार शिखरों से दुर्लध्य), महाश्मशानभूमि सदृश सैकड़ों मृगों से युक्त एवं भयंकर अग्नि जलानेवाली थी (सैकड़ों मृत देहों से युक्त एवं घोर अग्निवाली), तथा लंकापुरी सदृश पर्वतों के समूहों से युक्त एवं शाल तथा पलाश वृक्षों से युक्त थी (वन्दरों की टोली द्वारा भग्न किलोंवाली एवं मांस से व्याप्त)।
उस महाटवी में महाहस्तियों द्वारा घर्षित चंदन के वनों से सुगन्ध बह रही थी, कहीं बाघ द्वारा भैंसों का शिकार करने से लाल भूमि वाली थी, कहीं पराक्रमी सिंहों द्वारा हाथियों के मस्तकों के विदारण से मुक्ताफल फैल रहे थे, कहीं वराह की दाढ़ के अभिघात से भैंसा घायल हो रहे थे, कहीं भैसों के लड़ने का शब्द निकल रहा था, कहीं भीलों की स्त्रियाँ गंजाफल एकत्र कर रही थीं, कहीं बांस के वन में आग लग जाने से मुक्ताफल उज्ज्वल हो रहे थे, कहीं भयंकर शोर हो रहा था, कहीं शुष्क चीर-वृक्षों का शब्द हो रहा था, (कठोर तापसियों के मन्त्रोच्चारण हो रहे थे), कहीं मोर नाच रहे थे, कहीं भौरे गूंज रहे थे, कहीं शुकों का शब्द हो रहा था, कहीं चामरीमृगों की शोभा थी, कहीं वन के अश्वों का शब्द हो रहा था, कहीं भीलों के वच्चे शिकार
१. म० भा०-वनपर्व, ८८.१७ २. जाव पेच्छइ अणेय गिरि-पायव-वल्ली-लया-गुविल-गुम्म दूसंचारं महाविझाडवि
ति-२७.२९.