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________________ 19 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ से चलित न होकर केवलज्ञान और मुक्ति की साधना की। जीव अज्ञान भाव से कैसे-कैसे आत्मघातक भाव करता है और सम्यग्ज्ञान के बल से कैसे अपने को संसार से बचाकर मुक्ति प्राप्त करता है - इस तथ्य का बोध इस कथा से प्राप्त होता है। - हरिवंश पुराण से साभार रात्रि भोजन-त्याग का लाभ ज्ञानचक्षु द्वारा तीन लोक को जानने-देखने वाले भगवान जिनेन्द्र को नमस्कार करके सागरदत्त की कथा लिखते हैं : एक समय धनमित्र, धनदत्त आदि सेठ व्यापार के लिये कौशाम्बी से चल कर राजगृही की तरफ रवाना हुए। रास्ते में एक जंगल में उनको चोरों ने लूट लिया। पुण्यहीन पुरुष को हर कार्य में हानि ही होती है। धन प्राप्त करके चोरों के परिणाम खराब हो गये। सब विचारने लगे कि धन मुझे ही मिले। इस प्रकार लालच में आकर वे एक-दूसरे के प्राण लेने में तत्पर हो गये। रात्रि में जब सब भोजन करने बैठे तो उसमें से एक व्यक्ति ने दाल में और दूसरे ने सब्जी में विष मिला दिया, जिसके खाने से सभी मत्य को प्राप्त हए: उनमें सागरदत्त नाम का एक वैश्य पुत्र बच गया, जो वास्तव में चोर नहीं था बल्कि रास्ते में इन चोरों के साथ हो गया था, उसके बचने का कारण भी यह था कि उसके रात्रि भोजन के त्याग की प्रतिज्ञा थी। धन के लोभ में आकर सबको एक साथ मरा जानकर सागरदत्त को अत्यन्त वैराग्य हुआ। रात्रि भोजन त्यागी सागरदत्त संसार की लीलाओं को प्रत्यक्ष दुःख का कारण जानकर तथा जीवन को बिजली की तरह क्षण में नाश होने वाला समझकर समस्त धन वहीं छोड़कर दिगम्बर दीक्षा धारण कर अपने आत्मकल्याण के मार्ग में लग गया। - आराधना कथाकोष से साभार
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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