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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ 18 को आहार में विष देकर मारा, वह मुनि हत्या के पाप से नरक में जाकर महादुःख भोगकर तिर्यन्च हुई। इसप्रकार अनेक भव नरक तिर्यन्चादि के किये। मैं कुमारदेव उसका पुत्र म्लेच्छ से मरकर उत्तम कुल को तो पाया, परन्तु यति अथवा श्रावक के व्रतों का पालन नहीं किया, सो अज्ञान से अनेक भवों में भ्रमण किया। __ फिर एक सीत नामक तापस, उसकी मृगसंगिनी नाम की तापिसी उसका मैं मधु नाम का पुत्र हुआ। उस तापस के आश्रम में मैं बड़ा हुआ। फिर एक विनयदत्त नाम के मुनि को किसी एक भाग्यवान पुरुष ने आहार दिया उसके पंचाश्चार्यों का अतिशय देखकर मैं मुनि हुआ और वहाँ से स्वर्ग में आया, वहाँ से आकर कीचक हुआ हूँ। कुमारदेव की पर्याय में सुकुमारी (नागश्री) नाम की मेरी माता ने चिरकाल तक संसार भ्रमण करके दुर्भगा, दुर्गन्धा, अनुमति नामक मनुष्यनी होकर महादुःख को भोगकर आर्यिका होकर निदान सहित तप किया। जिसके प्रभाव से देवयोनि पाकर फिर द्रोपदी हुई। अनेक भव में उसके और हमारे सम्बन्ध हुए। किसी जन्म में भ्राता, कभी बहिन, कभी पुत्री और कभी स्त्री हुई। इसकारण मुझे उसके प्रति मोह हुआ। यह कथा कीचक केवली ने यक्ष से कही। ___ यहाँ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक.. इस संसारचक्र के परिभ्रमण में ऐसा ही संयोग-वियोग होता रहता है। माता मरकर बहिन होती है, बेटी होती है और स्त्री होती है और स्त्री मरकर माता होती है, बहिन होती है और बेटी होती है। यह संसारचक्र का चरित्र है - ऐसी संसारचक्र की विचित्रता जानकर भव्यजीव वैराग्य को अंगीकार करके मोक्ष के लिये महातप करने का प्रयत्न करो। कीचक ने विषय-वासना के तीव्र प्रभाव से मरणतुल्य मार खाई और उससे तीव्र वैराग्यभाव करके मुनि दीक्षा लेकर उग्र आराधना में उपसर्ग
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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