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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-1 . १९ 11 यह सुनकर नीचे खड़ा वह तीसरा मित्र अपनी हंसी रोक न सका और बोला- “ अरे भोले ! यदि घर ही ले जाने हैं तो नीचे आओ मैं तुम्हें और भी सरल उपाय बताता हूँ । वृक्ष पर चढ़ने से तो चोट लगने का भय है, तथा अधिक लाभ भी नहीं है। नीचे ही खड़े रहकर इसे मूल से काट डालो । वृक्ष थोड़ी ही देर में नीचे गिर जाएगा, फिर बेखटके खाते रहना और जितने चाहो भरकर घर ले जाना। भैय्या ! मैं तो एक छकड़ा लाकर सारा ही वृक्ष लादकर घर ले जाऊँगा । कई दिन आम खाऊँगा और सालभर ईंधन में रोटी पकाऊँगा । छकड़ेवाला अधिक से अधिक पाँच रुपया लेगा ।" और ऐसा कहकर लगा मूल में कुठार चलाने । शेष तीन मित्र अन्दर ही अन्दर पछताने लगे कि व्यर्थ ही इन दुष्टों के साथ आए, जिसका फल खायेंगे उसको ही जड़ से काट डालेंगे । धिक्कार है ऐसी कृतघ्नता को । कौन समझाए अब इनको । प्रभु इन्हें सद्बुद्धि प्रदान करें । साहस बटोरकर उनमें से एक बोला कि भो मित्र ! तनिक ठहरो, मैं एक कथा सुनाता हूँ पहले वह सुन लो, फिर वृक्ष काटना । तीनों चुप हो गए और कथा प्रारम्भ हुई। एकबार एक सिंह कीचड़ में फँस गया। बड़ी दयनीय थी उसकी व्यवस्था । बेचारा लाचार हो गया। कहाँ तो उसकी एक दहाड़ से सारा जंगल थरथरा जाता था और कहाँ आज वह ही सहायता के लिए प्रभु से प्रार्थना कर रहा है कि नाथ ! अब की बार बचा तो हिंसा न करूँगा, पत्ते ही खाकर निर्वाह कर लूँगा । प्रभु का नाम व्यर्थ नहीं जा सकता। एक पथिक उधर से आ निकला, सिंह की करुण पुकार ने उसके हृदय को पिघला दिया । यद्यपि भय था, परन्तु करुणा के सामने उसने न गिना और बेधड़क कीचड़ में घुसकर उस सिंह को बाहर निकाल दिया। वह समझता था कि वह सिंह अपने उपकारी का घात करना कभी स्वीकार न करेगा, परन्तु उसकी आशा के विपरीत बंधन मुक्त -
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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