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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ होते ही एक भयानक गर्जना करके उस व्यक्ति को तत्काल ललकारा, “किधर जाता है, मैं तीन दिन का भूखा हूँ, तूने मुझे बन्धन से मुक्त किया है और तू ही मुझे भूख से मुक्त करेगा।” अब तो पथिक के पाँव तले की मिट्टी खिसकने लगी, वह घबरा गया, प्रभु के अतिरिक्त अब उसके लिये कोई शरण नहीं थी। उसने उसे याद किया, फलस्वरूप उसे एक विचार आया। वह सिंह से बोला कि भाई ! ऐसी कृतघ्नता उचित नहीं है। सिंह कब इस बात को स्वीकार कर सकता था, गरजकर बोला-“लोक का ऐसा ही व्यवहार है, तू अब मुझसे बचकर नहीं जा सकता।” पथिक को जब कोई उपाय न सूझा तो बोला कि अच्छा भाई ! किसी से इसका न्याय करालो। व्यवहार कुशल सिंह ने यह बात सहर्ष स्वीकार कर ली, मानों उसे पूर्ण विश्वास था कि न्याय उसके विरुद्ध न जा सकेगा, क्योंकि वह जानता था कि मनुष्य से अधिक कृतघ्नी संसार में दूसरा नहीं है। दोनों मिलकर एक वृक्ष के पास पहुंचे और अपनी कथा कह सुनाई। वृक्ष बोला कि सिंह ठीक कहता है। कारण कि मनुष्य गर्मी से संतप्त होकर मेरे साये में सुख से विश्राम करता है, मेरे फलों के रस से अपनी प्यास बुझाता है, परन्तु फिर भी जाते हुए मेरी टहनी तोड़कर ले जाता है अथवा मुझे उखाड़कर चूल्हे का ईंधन बना लेता है। अतः इस कृतघ्नी के साथ कृतघ्नता का ही व्यवहार करना योग्य है। निराश होकर वह आगे चला तो एक गाय मिली। उसको अपनी कथा सुनाई, पर वह भी पथिक के विरुद्ध ही बोली। कहने लगी कि अपनी जवानी में मैंने अपने बच्चों का पेट काटकर इस मनुष्य की सन्तान का पोषण किया, परन्तु बूढी हो जाने पर यह निर्दयी मेरा सारा उपकार भूल गया और इसने मुझे कसाई के हवाले कर दिया। इसने मेरी खाल रिंचवाली और उसका जूता बनवाकर पाँव में पहिन लिया। अतः इस कृतघ्नी के साथ ऐसा ही व्यवहार करना योग्य है।
SR No.032268
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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