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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/७९ उसने मुनिराज की कही विधि पर अमल करना प्रारम्भ कर दिया। उसे घर, बाहर और दुकान आदि की कुछ सुध ही नहीं रही। वह इतना मग्न हो गया था जैसे रणभूमि में क्षत्रिय को लड़ते हुए उसे घर-बार की कुछ सुध नहीं रहती। मानो आज उसका विलुप्त हुआ क्षत्रियत्व जागृत हो गया हो। वह आपको आपरूप जानने में लग गया। आखिर उसने आप को आपरूप जान ही लिया। यहाँ अब आनन्द का सरोवर उछल रहा था। आज तो उसके अनंत दु:खों का सागर समाप्त हो गया था। आज उसका स्वर्णिम दिवस था। वह निर्ग्रन्थ बनना चाहता था। मुनिराज की जब आत्मतल्लीनता की दशा छूटी तब उसने कहा - हे गुरुदेव ! वे सेठजी जिन्होंने मुझे बताया कि तू भिखारी नहीं, सेठ है और मुझे सेठ बनाया वे तो उपकारी हैं ही, पर आपने तो समझाया कि तू भिखारी, नौकर और सेठ नहीं भगवान आत्मा है और भगवान आत्मा को भगवान आत्मा बना दिया; अत: आप परमोपकारी हो। सच्चा उपकारी वही है जो अनंत दुःखों से छुड़ाकर अनंत सुखों को दिला देवे। आपने यही किया है; अत: आप परमोपकारी हैं। आप अब मुझे अपने जैसा बना लो। मुनिराज ने उसकी सम्पूर्ण स्थिति को समझ लिया था तब उसे मुनि का पूर्ण स्वरूप समझाया। जब उसे समझ में आ गया तब मुनिराज ने उसे मुनिदीक्षा दी। वह अब निर्ग्रन्थ बन गया था। अहो ! धन्य हैं वे परमोपकारी मुनिराज !! जिन्होंने आप को आपरूप जाना और दूसरों को भी यही मार्ग दिखाया। अहो ! धन्य है वह जीव जो नीच से निर्ग्रन्थ बन गया। - डॉ. महावीरप्रसाद जैन ग्रहण -त्याग व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को व उनके भावों को, कारण-कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है। सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है। इसलिए उसका त्याग करना तथा निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है। किसी को किसी में नहीं मिलाता है, सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। इसलिए उसका ग्रहण करना। - मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ-२५१ -
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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