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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/७८ मुनिराज ने उसकी जिज्ञासा और पात्रता जानकर कहा – तुम आत्मा हो। जो अमर है, शाश्वत है। तुम शुद्ध-बुद्ध एक त्रिकाली ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा हो। मुनिराज ने कुछ और भी तत्त्व से भरी बातें उसे समझायीं। वह मुनिराज की बात को काक-चेष्ठा, वकोध्यानम् की तरह सुन रहा था। उसने ऐसी बात पहले कभी नहीं सुनी थी। आज उसे लगने लगा था कि यह कोई अद्भुत बात है। उसने मुनिराज से अत्यन्त विनय के साथ प्रश्न किया - आपने ऐसी अवस्था क्यों धारण कर रखी है और ऐसी कठिन तपस्या क्यों कर रहे हैं ? मुनिराज ने कहा – संसार दु:खों का सागर है। कहीं भी सुख दिखाई नहीं देता। संसार के दुःखों से छूटने के लिए और सुख की प्राप्ति के लिए यह निर्ग्रन्थ अवस्था धारण की है। यह कठिन तपस्या भी इसी हेतु से कर रहा हूँ। उसने फिर प्रश्न किया – इससे सुख कैसे मिल सकता है ? मुनिराज ने कहा - हे भाई ! इस नग्न अवस्था की कठिन तपस्या से सुख नहीं मिलता है। यह भी भिखारी, नौकर और सेठ की तरह एक क्षणिक अवस्था है। जब जीव स्वयं को पहिचानता है तभी वह सुखी होता है। अपने को जानकर पूर्ण मुक्ति की प्राप्ति के लिए निर्ग्रन्थ होना अत्यन्त आवश्यक है। जब निर्ग्रन्थ होकर जीव अपने को पहिचानता रहता है तो एक दिन वह ऐसी अवस्था छोड़कर भगवान बन जाता है। ___मुनिराज की बातें सुनकर उसने कहा – मैं भी निर्ग्रन्थ बनना चाहता हूँ, मुझे भी इसकी विधि बताइये। ____ मुनिराज ने कहा - तुम आत्मा हो, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो। न कुछ तुम्हारा है और न तुम किसी के हो। ऐसा यथार्थ श्रद्धान करो और स्वयं में लीन हो जाओ। यही निर्ग्रन्थ का मार्ग है। ऐसा कहकर मुनिराज पुन: आत्मलीन हो गये।
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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